________________
शुद्धात्म-द्रव्य अधिकार तथाप्यस्यासौ स्यादिह किल बन्धः प्रकृतिमिः स खल्वज्ञानस्य स्फुरति महिमा कोऽपि गहनः ॥३॥
विद्यमान चैतन्य द्रव्य जानावरणादि का अथवा रागादि अशुद्ध परिणामों का कर्ता नही है। यह सहज म्वभाव मे अनादि-निधन ऐसा ही है। द्रव्य दृष्टि से जीव द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म से भिन्न है एवं अनंत द्रव्य अपनी समस्त अतीत-अनागन-वर्तमान पर्यायों सहित इसमें इसके प्रकाशरूप चंतनागण के कारण प्रतिबिंबित है। यद्यपि निश्चय दृष्टि से जीव द्रव्य शद्ध है फिर भी मसार अवस्था में जोव के ज्ञानावरणादि कर्मरूप जो कुछ बन्ध होता है वह निश्चय हो मिथ्यान्वरूप विभाव परिणमन शक्ति का ऐसा हो कोई असाध्य स्वभाव है।
भावार्थ- जो जोव द्रव्य मंसार अवस्था में विभावरूप मिथ्यात्वगग-दंष-मोह के परिणामा में परिणमा है तो वह जैसा परिणमा है वैसे ही भावों का कर्ता होता है। अशुद्ध भावां के मिटने पर जीव का स्वभाव अकां है ॥३॥ सर्वया . निह निहारत म्वभाव याहि प्रातमाको,
प्रात्मीक परम परम परकासना । प्रतीत अनागत वरतमान काल जाको, केवल स्वरूप गुरण लोकालोक भासना ।।
सोई जीव मंमार अवस्था माहि करम को, करतासों दोसे लिए भरम उपासना। यह महा मोहको पसार यहै मिथ्याचार, यह भो विकार यह व्यवहार वासना ॥३॥
श्लोक मोक्तृत्वं न स्वभावोऽस्य स्मृतः कर्तृत्ववञ्चितः । प्रज्ञानादेव भोक्ताऽयं तदमावाबवेदकः ॥४॥
गणधर देव ने ऐसा तो नहीं कहा है कि चैतन्य द्रव्य अपने सहज गुण से ज्ञानावरणादि कर्मों के फल अथवा सुख-दुख रूप कर्म चेतना का अथवा रागादि अशुद्ध परिणामरूप कर्म चेतना का भोक्ता है, बल्कि ऐसा कहा है कि जीव का स्वभाव भोक्ता नहीं है क्योंकि जीव द्रव्य कर्म का कर्ता ही नहीं है । तो प्रश्न उठता है कि फिर भी जीव द्रव्य अपने सुख-दुखरूप परि