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समयसार कलश टोका णामा का भोगता है एमा भा है-यह कैसे हुआ ? चूंकि जीव का अनादि काल में कम में मयांग है इसलिए वह मिथ्यात्व-राग-द्वेष रूप अशुद्ध विभाव म परिणामत हुआ है, इसलिए भोक्ता है । मिथ्यात्वरूप विभाव परिणामों का विनाश होने पर जीव द्रव्य साक्षात् अभोक्ता है।
भावार्थ-जीव द्रव्य का जैसा अनन्लचतुष्टय स्वरूप है वसा कर्म का कापना-भाक्तापना उसका स्वरूप नहीं है। कर्म की उपाधि से वह उसका विभावरूप अशुद्ध परिणति का विकार है इसलिए विनाशीक है उस विभाव परिणान के विनगने पर जीव अकत्ता-अभोक्ता है। अब आगे यह कहेंगे कि मिथ्यादष्टि जीव द्रव्यकम का अथवा भावकम का कर्ता है, परन्तु सम्यकदृष्टि का नहीं है ॥४॥ चौपाई-यथा जीव कर्ता न कहावे, तया भोगता नाम न पाये।
है भोगी मिभ्यामति मांहीं । गए मिथ्यात्व भोगता नाहीं ॥४॥
शार्दूलविक्रीड़ित प्रजानी प्रकृतिस्वभावनिरतो नित्यं भवेद्वेदको गानी तु प्रकृतिस्वभावविरतो नो जातुचिद्वेदकः । इत्येवं नियमं निरूप्य निपुर्णरज्ञानिता त्यज्यतां शुद्धंकात्ममये महस्यचलितंरासेव्यतां जानिता ॥५॥
जीव को परद्रव्य में आत्मबुद्धि रूप मिथ्या परिणति जस भी मिट, मंटना योग्य है क्योंकि सम्यग्दष्टि जीव शुद्ध चिद्रप के अनुभव में अखण्ड धारारूप में मग्न है, समस्त उपाधियों में रहित है और अकेला चैतन्यपना उसका स्वभाव है। उसके लिए तो शुद्ध वस्तु की अनुभव रूप सम्यक्त्व परिणति में सर्व काल रहना ही उपादेय है क्योंकि वह वस्तु स्वरूप के परिणमन को अवश्य ही जानता है। वस्तु स्वरूप ऐसा है कि मिथ्यादृष्टि जीव सवं काल में द्रव्यकर्म का, भावकर्म का भोक्ता होता हैं। मिथ्यात्व का परिणमन निश्चय ही ऐसा ही है। अज्ञानी जीव ज्ञानावरणादि अष्टकम के उदय में नाना प्रकार के चतुर्गति शरीरों को, रागादि भावों तथा सुख-दुख की परिणति को अपना जान कर उनमें एकत्व बुद्धि रूप परिणमा है । मिथ्यात्व के मिटने पर तो जिसका कर्म के उदय के कार्य में, उसे हेय जान कर, स्वामित्वपना छूट गया है ऐसा सम्यग्दृष्टि जीव ही है जो द्रव्यकर्म,