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ममयसार कलश टीका बंध को निग्नय में नहीं छना है । आगं सापगध और निरापराध का लक्षण कहते है मिथ्यादष्टि जीव गगादि अगद्ध परिणाम रूप परिणमन करता है ओर अपने जीव द्रव्य का निग्नर वैमा ही अनुभव करता है इसलिए अपगध महित होता है। माध अर्थात् मम्यग्दष्टि जीव सकल रागादि अशद्धपने में भिन्न जो गद्ध चिद्रप मात्र जीव द्रव्य है उमो का अनुभव करता है, उसी में विराजमान है. इसलिए ममम्त अपराध में रहित है, उसको कर्म का बन्ध नहीं होना ॥८॥ दोहा-जाके घट ममता नहीं, ममता मगन सदीव ।
ग्मता राम न जानहो, सो अपराधी जीव ।। अपराधी मिथ्यामती, निगो हिरो अंष । पर को माने प्रात्मा, करे करम को बंध ।। झूठी करणी प्राचरे, झठे सुन्य को प्रास। झूठी भगती हिय धरे, झूठो प्रभको दास ॥ जिन्ह के मिथ्यामति नहीं, मानकला घट माहि। परचे प्रातमराममों, ते अपराधी नांहि ॥
प्रार्या प्रतो हताः प्रमादिनो गताः सुखासीनतां प्रलीनं चापलमुन्मूलितमालम्बनम् प्रात्मन्येवालानितं च चित
मासम्पूर्णविज्ञानघनोपलम्धेः ॥६॥ शद्ध ग्वरूप को प्राप्ति मे भ्रष्ट मिथ्यादृष्टि जीव मोक्षमार्ग का अधिकारी नहीं है अन उमको धिक्कार कहा है। वह कर्म के उदय में प्राप्त भोग मामग्री में गण की वांछा करता है। रागादि अशुद्ध परिणामों में उसके प्रदेशों में आकुलता होनी है वे भी हेय हैं। बुद्धिपूर्वक ज्ञानोपार्जन करते हुए पढ़ना, विचार करना. चितन करना, स्मरण करना भी मोक्ष का कारण नही है ऐसा जानकर उनको भी हेय कहा है। शद्ध स्वरूप में एकाग्र होकर मन को बांधना ही मोक्ष का कारण है और वह निरावरण केवलज्ञान का समूहरूप जो आत्मद्रव्य है उसकी प्रत्यक्ष प्राप्ति से होता है ।।६।। संबंया-जिन्हके परम ध्यान पावक प्रगट भयो,
संस मोह विभ्रम बिरस तीनों बड़े हैं।