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मोक्ष-अधिकार
जिन्हके चितौनि प्रागे उदं स्वान मूमि भागे, लागे न करम रज ज्ञान गज बढ़े हैं ॥ जिन्ह को समझ को तरंग अंग ग्रागम से, प्रागम में निपुण प्रध्यातम में कड़े हैं। तेई परमारथी पुनीत नर पाठों याम, राम रस गाढ़ करे यह पाठ पढ़े हैं ॥६॥
वसंततिलका
यत्र प्रतिक्रमणमेव विषं प्रणीतम् तत्राप्रतिक्रमणमेव सुधा कुतः स्यात् । तत्कि प्रमाद्यति जनः प्रपतन्नधोऽधः
कि नोद्धं वमृद्ध वर्माधिरोहति निःप्रमादः ॥ १०॥
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जहाँ प्रतिक्रमण को ही विष बनाया गया है वहां अप्रतिक्रमण तो अमृत कहाँ से हो सकता है। जब ऐसा है तो संसारी जीवराशि क्यों प्रमाद करती है !
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भावार्थ- - सूत्र के कर्त्ता कृपासागर आचार्य कहते हैं कि नाना प्रकार के विकल्प करने मे साध्य की सिद्धि तो नही है । जन (लोग) जैसे-जैसे अधिक क्रिया करते हैं, अधिक में अधिक विकल्प करते हैं, वैसे-वैसे अनुभव से भ्रष्ट होते जाते हैं। इस कारण से ममार्ग जीव राशि निर्विकल्प से निर्विकल्प अनुभवरूप परिणाम क्यों नहीं करती। उस निविकल्प अनुभव में जहाँ प्रतिक्रमण अर्थात् पठन-पाठन, स्मरण, चितन, स्तुति, वंदना इत्यादि अनेक क्रियारूप विकल्प विष की भांति कहे है। तब उस निविकल्प अनुभव में अप्रतिक्रमणरूप अर्थात् न तो पढना न पढ़ाना, न वदना न निंदा ऐसा भाव अमृत के निधान समान कैसे हो सकता है ? भावार्थ-निर्विकल्प अनुभव मुखरूप है इसलिए उपादेय है । नाना प्रकार का विकल्प आकुलतारूप है इसलिए हेय है ॥ १० ॥
दोहा -- नंदन वंदन युतिकरन, श्रवन चितवन जाप ।
पढ़न पढ़ावन उपदिसन, बहुविधि क्रिया कलाप | सुद्धातम अनुभव जहाँ, सुभाचार तह नाहि । करम करम मारग विबं, सिवमारग सिवमहि ॥