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समयसार कलश टीका
चोपाई - जहाँ प्रमाद दमा नहिं व्याये । तहाँ अवलंब प्रापनी प्रार्थ ॥ ना कारन प्रमाद उतपाती । प्रगट मोखमारग को घाती ॥ जेमद सयुक्त गुमाई । उठहि गिरोह गिदुक को नांई ॥ जे प्रमाद तजि उद्धत होई। तिनको मोक्ष निकट द्विग सोई ।। घटते प्रमाद जब नांई । पराधीन प्रारणी तब तांई ॥ जब प्रमाद की प्रभुता नासे । तब प्रधान प्रनुभव परका से || दोहा-ता कारण जगपंथ इन, उन शिवमारग जोर 1 परमादी जग के प्रपरमाद शिव प्रोर ॥१०॥
मालिनी
प्रमादकलितः कथं भवति शुद्धभावोऽलसः कषायभरगौरवादलमता प्रमादो यतः । श्रतः स्वरसनिर्भरे नियमितः स्वभावे भवन् मुनिः परमशुद्धतां व्रजति मुच्यते चाऽचिरात् ॥ ११॥
जो जीव (शुद्ध चेतना का अनुभव करने में शिथिल है वह शुद्धोपयोगी कहा में होगा अथात् नहीं होगा । रागादि अशुद्ध परिणति के तीव्र उदय में नाना प्रकार के विकल्प होत है और इस कारण में अनुभव करने में शिथिलता आती है ।
भावार्थ जा जीव शिथिन्न है, विकल्पी है, वह जीव शुद्ध नही है क्योंकि शिथिलपना और विकल्पपना अशुद्धता का मूल है। इस कारण से सम्यग्दृष्टि जीव शुद्धापयाग परिणति में परिणमन करता है और उस काल में वह कर्मबंध से मुक्त होता है। ऐसा मुनि (सम्यग्दृष्टि जीव) शुद्धस्वरूप में एकाग्ररूप में मग्न होता हुआ अपने स्वभाव अर्थात् चेतनागुण से परिपूर्ण है ।। १११ ।।
दोहा-जे परमादी प्रालसो, जिन्हके विकलप भूर । होइ मिथिल अनुभविवे, निन्हको शिवपथ दूर ॥ जे परमादी ग्रालसो, ते प्रभिमानी जीव ।
जे प्रविकल्पो अनुभवी, ते समरसी सदीव ।। जे प्रविकल्पी अनुभवी, शुद्ध चेतनायुक्त । से मुनिवर लघुकाल में, होहिं करम सों मुक्त ॥११॥