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समयसार कलश टोका जो चिन मंडित भाव, उपाये जानने ।
त्याग योग्य परभाव, पगए मान॥ मर्वया जिन्हके सुमति जागी भोगसो भए विरागी,
परसंग त्यागि जे पुरुष विभवन में। रागादिक भावनिमों जिनको रहनि न्यारी, कबहू मगन ह न रहे धाम धनमें ।
जे मदेव प्रापको विचारं मरवांग शुख, जिनके विकलता न व्यापे कहं मन में। तेई मोम मारगके साधक कहावें जीव, भावे रहो मंदिर में भावे रहो बन में ।।६।।
शार्दलविक्रीडित मिद्धान्तोऽयमुदात्तचिलचरितर्मोक्षार्थिमि : मेव्यतां शुद्धं चिन्मयमेकमेव परमं ज्योतिः सदवास्म्यहम् । एते ये तु समुल्लसन्ति विबुधा भावाः पृथग्लक्षरणास्तेऽहं नाऽस्मि तोऽत्र ते मम परद्रव्यं समग्रा अपि ॥६॥
मकल कर्म के क्षय होने से जो अतीन्द्रिय मुख होता है उसको जो जीव उपादेयम्प अनुभव करता है उमे जमा वस्तु का म्वरूप बताया है उसका निरन्तर वैमा ही अनुभव करना चाहिए। मोक्षार्थी जीव के मन का अभिप्राय संसार शरीर भोगों मे रहित है । परमार्थ मे जीव द्रव्य स्वसंवेदन प्रत्यक्ष है और सर्व काल में ज्ञानस्वरूप है। यह विशेष है कि शुद्ध चैतन्य स्वरूप मे न मिल पाने वाले जो रागादि अशद्ध भाव-शरीर आदि और मुख-दुःख आदि नाना प्रकार की जो अशुद्ध पर्याय हैं वे समस्त जीव द्रव्य के स्वरूप नहीं हैं. वे हमारे शुद्ध चैतन्य स्वरूप में नहीं मिल सकते। इसलिए निज स्वरूप का अनुभव होने पर जितनी भी रागादि अशुद्ध विभाव पर्याय हैं वे मेरे लिए पर-द्रव्यरूप हैं कारण कि वे शुद्ध चतन्य लक्षण से मिलती नहीं हैं इसलिए समस्त विभाव परिणाम हेय हैं ।।। संबंया-चेतन मंडित अंग प्रखण्डित, शुद्ध पवित्र पदारथ मेरो।
राग विरोष विमोह दशा, समुझे भ्रम नाटक पुदगल केरो॥ भोग संयोग वियोग म्पया, अवलोकि कहे यह कर्मन घेरो। है जिन्हकों अनुभौ इह भौति, सदा तिनको परमारपरो॥६॥