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ममयमार कलश टोका संबंया-कोऊ मनभवी जीव कहे मेरे अनुभी में,
लमग विमेद भिन्न करमको जाल है। जाने प्राप प्रापकोजु प्रापर्कार प्रापटिष, उतपति नाश ध्रव धाग प्रमगल है।
मारे विकलप मोसों न्यारे सरवथा मेरो, निश्चय स्वभाव यह व्यवहार चाल है। में तो शुद्ध चेतन अनन्त चिनमुद्रा धारि, प्रभना हमागे एकरूप तिहं काल है ॥३॥
शार्दूलविक्रीड़ित प्रदेताऽपि हि चेतना जगति चेदृग्नप्तिरूपं त्यजेत् तत्मामान्यविशेषरूपविरहात्माऽस्तित्वमेव त्यजेत् । तत्यागे जडता चितोऽपि भवति व्याप्यो विना व्यापकादात्मा चातमुपैति तेन नियतं दृग्नप्तिरूपास्तु चित् ॥४॥
इम प्रकार चेतनामात्र मता का दर्शन नाम तथा ज्ञान नाम दोनों ही संज्ञाओं में उपदेश होता है।
भावार्थ - - सत्त्वरूप चेतना एक है, उसके नाम दा हैं। एक तो दर्शन नाम है, दूसरा ज्ञान नाम है। ऐसा भद होता है तो हो, इसमें कुछ विरोध नहीं है । ऐसा है कि स्व-पर ग्राहक शक्ति एक प्रकाशरूप त्रैलोक्यवर्ती जीवों में प्रकट है तथापि दर्शनम्प चेतना और ज्ञानरूप चेतना ऐसे दो नामों को छोड़ तो तीन दोष उपजते हैं। एक दूसरे में से कोई एक अपने सत्त्व को अवश्य छोड़ते हैं । भावार्थ-ऐसा भाव उपजता है कि चेतना सत्त्व नहीं है क्योंकि सत्ता मात्र में पर्यायरूप का रहितपना हो जाता है। भावार्थ-समस्त जीवादि वस्तु सत्वरूप है और वही सत्व पर्यायरूप है। चेतना भी अनादि निधन, सत्ता स्वरूप वस्तुमात्र और निविकल्प है इसलिए वेतना को दर्शन कहा है क्योंकि यह समस्त श्रेय वस्तु को ग्रहती है और वैसे हो मेयाकार परिणमन करती है इससे चेतना का ज्ञान नाम कहा है। इन दोनों अवस्थाओं को यदि छोड़ दें तो चेतना वस्तु नहीं है ऐसी प्रतोति उपजती है। यहां कोई प्रश्न करे कि चंतना नहीं तो न सही, जोव द्रव्य तो है हो-इसका यह उत्तर है कि जीव द्रव्य चेतना मात्र से सिद्ध होता है । बिना