________________
बंध-अधिकार
१४६ चौपाई-मैं करता मैं कोन्हीं कमी। प्रब यों करों कहे जो ऐसी। ए विपरीत भाव हैं जामें। सो बरते मिष्यत्व दसा ।।
अनुष्टुप अनेनाध्यवसायेन निष्फलेन विमोहितः । तत्किञ्चनापि नवाऽस्ति नात्माऽऽत्मानं करोति यत् ॥६॥
मिथ्यादष्टि जीव अपने आपको अपने का अनुभव न करके जमी पर्याय है वैमा ही विकल्प करना है। परन्तु वैमा तो तीनों लोक में है ही नहीं।
भावार्थ-मिथ्यादष्टि जीव जंमी पर्याय धारण करता है वैसे ही भावों में परिणमन करता है और उम मत्र को अपना आपा जान कर अनुभव करता है। कर्म के स्वरूप को जीव के स्वरूप में भिन्न नही जानता है. ---एक रूप अनुभव करता है। इमको माम. इगको जिलाऊं, इमे मैंने मारा, इसे मैंने जिलाया, इमे मैंने सुखी किया, इमे मैंने दुखी किया ... इस तरह के परिणामों में मतवाला हो रहा है, जो सब झूठे हैं । भावार्थ-- -याप माग कहता है, जिलाया कहता है परंतु वह सब कर्म के उदय के हाथ है उसके परिणामों की सामर्थ्य नहीं है । यह अपने अज्ञानपने के वा अनेक झट विकल्प करता है ॥६॥ दोहा--प्रहबुद्धि मिथ्यादशा, घर सो मिध्यावंत । विकल भयो संसार में, करें विलाप अनंत ॥६॥
श्लोक विश्वादिभक्तोऽपि हि यत्प्रभावादात्मानमात्मा विदधाति विश्वम् । मोहेककन्दोऽध्यवसाय एष नास्तीह येषां यतयस्त एव ॥१०॥
मिथ्यान्व ही जिनका मुल कारण है ऐसे मिथ्यात्वरूप परिणाम (कि इसको मारू, उसको जिलाऊं) जिमके मूक्ष्मरूप में और या स्थूलरूप में नहीं होते वही यतीश्वर (मुनिराज) है। मिथ्यात्व परिणाम मे ही जीव अपने आपको 'मैं देव, मैं मनुष्य, मैं कांधी, मैं मानो, मैं सुखी, मैं दुःखी' इत्यादि नाना रूपों में अनुभव करता है याप वह कमों के उदय में होने वाली समम्न पर्यायों मे भिन्न है।
भावार्थ-मिथ्यादृष्टि जीव पर्याय में रत (मग्न) है इसलिए पर्याय