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ममयसार कलशटोका
वसंततिलका प्रजानमेतदधिगम्यः परात्परस्य, पश्यन्ति ये मरगजीवितदुःखसौल्यम् । कम्ाण्यहंकृतिरसेन चिकोर्षवस्ते,
मिथ्यादृशो नियतमात्महनो भवन्ति ॥७॥ जो कोई अज्ञानी जीवशि, मिथ्यात्वरूप अशुद्ध परिणामों के कारण नथा अगदपने के कारण अन्य जीव में अन्य जीव का मग्ना-जीना, दुखमुम्न मानते है वे निश्चय में मव प्रकार गे मिथ्यादष्टि (जीव) गांग है। उम मिथ्यादष्टि जीव गांग की कम जनित पर्यायों में रोमी आत्मर्वाद्ध है कि मैं देव ह. मै दुःखी हूं. मै मुखा है। कर्मों के उदय में होने वाली जितनी किया है उनमें एमे मग्न हो रहे हैं कि मैं करने वाला हं. मैंने किया है--
सा अज्ञान . कारण मानते है । एमी मिथ्यादष्टि जीव राशि अपना घात करने वाली है ॥७॥ संबंया ---जहांलो जगतके निवासी जीव जगत में,
सर्व प्रमहाय कोउ काहको न धनो है। जमी-जंसी पूरब करम सत्ता बांधि जिन्ह, तमी-सी उदमें प्रवस्था प्राइ बनी है।
एते परि जो कोऊ कहे कि मैं जियाऊं मारू, इत्यादि अनेक विकलप बात धनी है। सांतों प्रहं बुद्धिसों विकल भयो तिहुंकाल, डोल निज मातम सकति तिन्ह हनी है ।।७।।
अनुष्टुप मिथ्यादृष्टेः स एवास्य बन्धहेतुर्विपर्ययात् । य एवाध्यवसायोऽयमज्ञानात्माऽस्य दृश्यते ॥८॥
मिथ्यादृष्टि जीव के मिथ्यात्वरूप ऐसे परिणाम होते है कि उसने इतने जीव जिलाए, यह भाव ज्ञानावरणादि कर्मों के बन्ध के कारण होते हैं । इसलिए ऐसे परिणाम मिथ्यात्वरूप ही हैं। जिसके ऐसे परिणाम हों कि इसको मारूं, इसको जिलाऊं ऐसे जाव का मिथ्यात्वमय स्वरूप देखा जाता है।