________________
१८६
समयसार कलश टोका
वसंततिलका जाति यः स न करोति करोति यस्तु, जानात्ययं न खलु तत्किल कर्मरागः । रागं त्वबोधमयमध्यवसायमाहुमिथ्यादृशः स नियतं म च बन्धहेतुः ॥५॥
जो कोई सम्यग्दष्टि जीव शुद्ध स्वरूप का अनुभव करता है सो सम्यग्दष्टि जीव कमों के उदय में मिलने वाला सामग्री को अभिलाषा नहीं करता है। जो कोई मिथ्यादष्टि जीव कर्मा की विचित्रता में उपलब्ध मामग्री को अपनी जानकर उसकी अभिलाषा करता है वह मिध्यादृष्टि जाव, जीव के शुद्ध म्वरूप को नहीं जानता है।
भावार्थ --मिथ्यादष्टि जीव के, जीव के स्वरूप का जानना नहीं घटित होता । जब मा हो वस्तु का निश्चय है, तो यह जो कहा है कि मिथ्यादष्टि कर्ता है.-सो वह कर्ना क्या है । वास्तव में जो कर्मों से प्राप्त सामग्री में अभिलापाम्प चिकना परिणाम है वही कर्म-जनित सामग्री का कपिना है। कोई माने कि कम-जनित सामग्री में अभिलाषा हुई तो क्या
और न हुई तो क्या। सोमा नहीं है-अभिलाषा मात्र पूरा मिथ्यात्व परिणाम है-सा कहा है। वस्तुस्थिति ऐसी है कि केवल परद्रव्य मामग्री में अभिलाषा मात्र मिथ्यान्व परिणाम है ऐमा गणधरदेव ने कहा है ।मिथ्यादृष्टि जीव के कर्म-जनित सामग्री में गग अवश्य ही होता है । सम्यकदष्टि जीव के निश्चय ही नहीं होता। वही राग परिणाम कर्मों के बन्ध का कारण होता है । भावार्थ--मिथ्यादृष्टि जीव कर्मों का बन्ध करता है-सम्यकदृष्टि जीव नही करता ॥५॥ संबंया-जब लगि जीव शुख वस्तु को विचारे घ्यावे,
तब लग भोगसों उदासी सरजंग है। भोग में मगन तब मानकी जगन नाहि, भोग प्रभिलाषकी दशा मिण्यात अंग है।
तातें विवं भोगमें मगनसों मिथ्याति जीव, भोगसों उदाससो समकिति अभंग है। ऐसे जानि भोगसों उदास हं मुकति साचे, यह मन चंग तो कठोतो माहि गंग है ॥५॥