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बंध-अधिकार
१४५ प्रकामकृतकर्म तन्मतमकारणं ज्ञानिनां द्वयं न हि विरुध्यते किमु करोति जानाति च ॥४॥
नथापि कार्माण वर्गणा, मन-वचन-काय के योग, पांचों इन्द्रिया और मन, जीव का घात, इत्यादि बाहरी मामग्रो कर्मों को बाधने के लिए कारण नहीं हैं । कर्मों को बांधने का कारण तो गगादि का अगदपना है वन्तु का स्वरूप ऐसा ही है। तो फिर भी, जब गद्ध स्वरूप का अनुभव करने वाले सम्यग्दष्टि जीव ने प्रमादी होकर विषयभाग किया तो किया ही। जीव का घात यदि हुआ तो हा हो। मन-वचन-काय को जानबग्न कर निरंकुश प्रवति हई। तब भी उमको कम का बन्ध नहीं है, "मा तो गणधरदेव नहीं मानते हैं। क्योंकि बुद्धिपूर्वक, जानबम कर, अन्नग्ग की कचि पूर्वक विषयकपाय में निरंकुश आचरण निश्चय में, अवश्य हो, मिथ्यात्व रागद्वेष रूप अमद्ध भावों को लिए हए है. इौला कर्म बंध का कारण है।
भावार्थ---ऐसी स्थिति के भाव मिथ्यादष्टि जीव के होते हैं सी मिथ्यादष्टि तो कर्मों का कर्ता है ही। सम्यग्दष्टि जीव जी कुछ पूर्व में बंध कमों के उदयवश करता है सो सब अवाठित त्रिया रूप है इसलिए कर्मबध का कारण नहीं है ऐसा गणधरदेव ने माना है और ऐसा ही है। कोई कहे कि भोग सामग्री मिलती तो कर्मो के उदय में है परन्तु मिली हुई भोग सामग्री मेरे अन्तर में महावनी लगती है और सा भी है कि शद्ध स्वरूप का अनुभव होता है और समस्त कमजनित सामग्री का हेय जानता हूं। ऐसा कोई कहता है तो वह झठा है। क्योंकि ज्ञाता भी हो ओर वाछक भी होगेसी दो क्रियाएं विरुद्ध नहीं हैं क्या ? अथांत सर्व या विरुद्ध हैं ॥४॥ सर्वया-कर्मजाल जोग हिंसा भोगसों न बंध 4,
तथापि माता उद्यमी बलाग्यो जिन बेन में। ज्ञानदृष्टि देत विव-भोगिन सों हेत दोऊ, क्रिया एक खेत योंतो बनं नाहि जंन में ।।
उदय बल उतम गहे व फल को न चहे, निर शान होइ हिरोके नन में। पालम निरुखमको भूमिका मिष्यात माहि,
जहाँ न संभारे जीव मोह-नोंद संन में चौपाई-जिय मोह नींद में सो। ते पालसो निरुद्यमी हो।
दृष्टि खोलिये जर्ग प्रबोना । तिनि मालस तजि उचम कोना ॥४॥