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समयसार कलश टीका
शार्दूलविक्रीडित
लोकः कर्मततोऽस्तु सोऽस्तु च परिस्पन्वात्मकं कर्म तत् ताम्यस्मिन् कारणानि सन्तु चिदचिदम्यापावनं चास्तु तत् । रामादीनुपयोग भूमिमनयन् ज्ञानं भवेत् केवलं
वयं मैव कुतोऽप्युपेत्ययमहो सम्यगात्मा ध्रुवम् ॥३॥
हे भव्य जीव ! विभाव परिणामों के उपयोग रहित अथवा चेतनमात्रगुण रूप परिणमता हुआ शुद्ध स्वरूप का अनुभवनशील सम्यकदृष्टि जीब भोग सामग्री को भोगता हुआ अथवा नहीं भोगता हुआ अवश्य निश्चय से ज्ञानावरणादि कर्मों का बन्ध नहीं करता है। वह तो मात्र ज्ञान स्वरूप रहता है ।
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भावार्थ- सम्यकदृष्टि जीव के बाहरी या भीतरी सामग्री जैसी बी बेसी ही है परन्तु रागादि अशुद्ध रूप विभाव परिणति नहीं है इसलिए उसके ज्ञानावरणादि कर्मों का बन्ध नहीं है । जो समस्त लोकाकाश कार्माण बर्षणा से भरा हुआ है सो जैसा था वैसा ही रहे। मात्म प्रदेशों के कम्पन से उत्पन्न मन, बचन, काय के तीन योग भी जैसे के तैसे ही रहें तथापि कमों का बन्ध नहीं है क्योंकि राग-द्वेष-मोह रूप अशुद्ध परिणाम चले गए हैं। पांच इन्द्रियां तथा मन भी जैसे हैं वैसे ही रहें और पूर्वोक्त चेतन व अचेतन के बात भी जैसे थे वैसे ही रहे तथापि शुद्ध परिणाम होने से कचों काः बन्ध नहीं है || ३ ||
सर्व
कर्मचाल बरगा को बास लोकाकाश मोहि, मम बच काय को निवास गति-म्राउ में । चेतन प्रचेतन की हिला बसे पुद्गल में, वियं-भोग बरते उनके उरभार में ॥
रानाविक शुद्धता प्रशुद्धता है यहे उपादान हेतु बन्ध के याही ते विचरण प्रबंध को राग-द्वेष-मोह नाहि सम्यक् स्वभाव
लव की, बढ़ाव में 1 तिहूं काल,
झाईसविक्रीडित
तथापि न निरर्नशं परितुमिष्यते ज्ञानिनां सदस्यतममेव सा किल निरर्गला व्यावृतिः ।
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