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बंध-अधिकार
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वसंततिलका सर्व सदंव नियतं भवति स्वकीयकर्मोदयान्मरणजीवितदुःखसोल्यम् । मनानमेतदिह यत परः परस्य,
कुर्यात्पुमान् मरण-जीवितदुःख-सौल्यम् ॥६॥ मिथ्यात्व परिणाम का एक अंग दिखाने है---ऐसा भाव मिथ्यात्व होने पर होता है कि कोई पुरुष किमी अन्य पुरुष का प्राणघात करता है या उसको प्राणरक्षा करता है अथवा किसी को अनिष्ट का संयोग कराता (दुख देता) हे या सुख की प्राप्ति कराता है।
भावार्थ-अजानो लोगों में एमी कहावत है कि अमुक जोव ने उस जीव को मारा, अमुक जीव ने उस जीव को जिलाया, उस जीव ने उस जीव को मुखी किया, उस जीव को दुखी किया। मी प्रतीति जिस जोव को होती है वह जीव मिध्यादष्टि है, नि:मंदहरूप में जान ला। इसमें कोई धोखा नहीं है। जो समस्त जीव गांश को प्राणघात, प्राण-रक्षा, इष्ट या अनिष्ट संयोग होता है, वह मबका काल में होता है ये सब निश्चय ही उसके आयुकर्म अथवा सानाकर्म अथवा अमाता-कम के उदय में होता है जिनको जोव ने अपने विशुद्ध अथवा सक्लेशरूप परिणामों मे पहले बांधा था। उन्हीं कर्मों के उदय में जीव का मरण अथवा जोबन अथवा दुःख अथवा सुख होता है, ऐसा निश्चय है। इस बात में कोई धोखा नहीं है । भावार्थ-कोई जोव किसी जीव को न मारने में समर्थ है और न जिलाने में समर्थ है । सुखी-दुःखी करने में भी समर्थ नहीं है ॥६॥ संबंया-तिहुं लोक माहि तिहुं काल सब जीवनिको,
पूरब करम उद प्राय रस देत है। कोऊरियाऊ परं ऊ प्रल्पाऊ मरं, कोऊ दुली कोऊ सुखो कोऊ समचेत है।
याहि में जियाऊं, याहि मारू, याहि मुली करू, याहि दुनो कई ऐसे मूढ़ मान लेत है। याही प्रहं बुद्धिसों न बिनसे भरम मूल, यह मिच्या भरम करम-बन्ध हेत है ॥६॥