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जोव-अ-िप्रकटितपरमार्दर्शनज्ञानवृत्तः
कृतपरिणतिरात्माराम एवं प्रवृत्तः ॥३१॥
पूर्वोक्त प्रकार में यही जोवद्रव्य, अन्य द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म से भिन्न शुद्ध चिद्र पमात्र. गुट चैतन्यरूप होते हुए, शुद्ध पर्यायरूप जैसा था वसा प्रकट हुआ। आत्मा का निभेद, निर्विकल्प चिद् प वस्तु जैसी है उसी म्प परिणाम हुआ । दर्शन अर्थात् श्रद्धा-रुचि-प्रतीति, शान, चारित्र अर्थात् शुद्ध परिणति, ऐसा जा रत्नत्रय है उस रूप उसने परिणमन किया। और उम जीव ने, जिमका क्रीडावन अर्थात् आराम का स्थल अपनी आत्मा में ही है, मकल-कर्म-क्षय लक्षण मोक्ष को प्रकट किया है।
भावार्थ-- जीव द्रव्यशक्ति रूप में तो शुद्ध था और कर्म संजोग से अगदरूप परिणमा था। अशुद्धपना गया तो जैसा था तैसा हो गया। जैसे सोने की गोधने में कालिमा जाने पर मोनामात्र रह जाता है उसी तरह मोहगग-द्वेष विभाव परिणाम मात्र के जाने पर महज ही शुद्ध चेतनमात्र रह जाता है। मिथ्यात्व परिणति का त्यागकर, शुद्ध स्वरूपका अनुभव होने में माक्षात् रतनत्रय घटित होता है। "सम्यग्दर्शनज्ञानारत्राणि मोक्षमार्ग: एसा कथन तो सर्व जैन सिद्धान्त में है और यह हो प्रमाण है । अशुद्ध अवस्था में चनन पर रूप परिणमता था, वह तो मिट गया, अब स्वरूप परिणमन मात्र रह गया ॥३१॥ संबंया- तत्व की प्रतीति सों लल्यो है निज-परगुरण,
दृग-जान चरण त्रिविध परिणयो है। वसद विवेक पायो माछो विसराम पायो, प्रापही में अपनी सहागे सोधि लयो है।
कहत बनारसी गहत पुरुषारय को सहज सुभाव सों विभाव मिटि गयो है। पन्ना को पकाए जैसे कंचन विमल होत, तसे शुद्ध चेतन प्रकाश रूप भयो है ॥३१॥
उपेन्द्रवज्रा मज्जंतु निर्भरममी मममेव लोका आलोकमुच्छलति शान्तरसे समस्ताः ।