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ममयसार कलश टाका
पापमों कुर्गात होय पुन्बसों मुर्गात होय ।
ऐमो फलमेव परतन परमानिए। पाप बन्ध पुन्य बन्ध में मुकति नाहि, कटुक मधुर स्वाद दुग्गल को पेखिए । महिलेस विशुद्धि सहन होउ कर्मचाल, कुर्गात मुर्गात जग जाल में बिसेलिए।
कारणादि मेर तोहि मत मिण्यात माहि, ऐसो तभाव मानष्टि में न लेखिए। होउ महा अन्य कप, दोउ कर्म बंधाप, दुहं को बिनाश मोममारग में रेखिए ॥३॥
रयोदता कर्म सर्वमपि सवितो यह बन्धसाधनमुशन्त्यविशेषात् । तेन सर्वमपि तत्प्रतिषिलं ज्ञानमेव विहितं शिवहेतुः ॥४॥
टम प्रकार मवंशवीतराग ने ममम्न शुभम्प-वन-मयम-तप-शीलउपवाम इन्यादि क्रियाओं को अथवा विषय-कपाय इत्यादि अशुभप क्रियाओं को एकमी दृष्टि में बंध का कारण कहा है।
भावार्थ-जैसे जीव की अगभ किया करने में वध होता है वैसे ही शुभ क्रिया करने से भी जीव को बंध होता है । बध में नी विशेष अन्नर नहीं। इसलिए कोई मिथ्यादृष्टि जीव गुभ क्रिया को मोक्षमागं जान कर उसका पक्षपात करे तो उसका निपंध किया है । मा भाव रखा कि कोई भी कर्म मोजमार्ग नहीं है । निश्चय में गुट स्वरूप का अनुभव ही मोक्षमार्ग है। अनादि काल की परम्परा से ऐसा ही उपदेश है ।। ४।। संबंधा-सील तप संयम विरति न पूजारिक,
अपवा असंयम कवाय विवं भोग है। कोउ शुभरूप कोउ प्रशुभ स्वरूप मूल, बस्तु के विचारत दुविष कर्म रोग है।
ऐसी बन्ध पति बलानी बोतराग देव, पातम परम में करत त्याग जोग है। भो बल तरंया रागांव के हरया, महा मोम के करंया एक शुद्ध उपयोग है।