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षष्ठम अध्याय
संवर-अधिकार
शालविक्रीडित पासंसारविरोषिसंवरजयकान्तावलिप्तानबन्यक्कारात्प्रतिलम्पनित्यविजयं सम्पादयत्संबरम् । व्यावृतं परस्पतो नियमितं सम्यक् स्वल्पे स्फुर
ज्योतिश्चिन्मयमुज्ज्वलं निजरसमाग्मारमुज्जम्भते ॥१॥
पिछले अधिकार में कहा है कि सम्यक्त्व से वह (शान) प्रकाश स्वस्प वस्तु प्रकट होती है जिसका स्वरूप चेतना है, जो सर्व काल प्रकट है। कमों के कनंक से रहित है, निज चेतनगुण का समूह है। (मेय वस्तुगों को जानते हए भी)जिसका शेयाकार में परिणमन नहीं होता, जीव के स्वरूप में बसी है वैसी ही प्रगाढ़ रूप से स्थापित है और जिसने शानावरणादि कर्मों के घाराप्रवाहरूप आस्रव को रोक दिया है।
भावार्थ-अब यहाँ मे आगे मंवर का स्वरूप कहेंगे। मुमसे बड़ा तीनों लोकों में कोई नहीं है, ऐसा जिसको गर्व हुमा है उस मानब अर्थात् धाराप्रवाहरूप कर्मों के आगमन के मान को भंग करके, अपने अनन्तकाल के बेरी बासव पर, बंध जाने वाले कर्मों का निरोध करके, संवर ने चिरस्थायी विजय पाई है। भावार्थ-आस्रव और संवर हर स्थिति में अत्यन्त वैरी हैं। अनन्तकाल से समस्त जीव राशि विभाव-मिथ्यात्वरूपपरिणमन कर पी है इसलिए उसे शुद्ध ज्ञान का प्रकाश नहीं मिलता बोर मानव के बाधीन सब जीव है। काललब्धि को पाकर कोई निकटभव्य-जीव सम्यक्त्वाम स्वभाव परिणति में परिणमन करता है, जिससे शुद्ध प्रकाश प्रकट होता है गौर उससे कर्मों का आस्रव मिटता है। इस प्रकार शुद्ध ज्ञान का विजयी होना सिख होता है ॥१॥