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निजंरा-अधिक मोलिा जीव वा या नहीं है। चेतन मात्र अविनाशी है इसीलिए वही जीव का स्वरूप है ॥६॥ मग - (१) काया चित्रशाला में करम परजंक भारी,
माया को मवारी मे बाबर कलपना । शंन करें सेवन प्रवेतनता नीर लिए. मोर को मगेर यो लोचन को उपना ।।
उबल जोर यह श्वास को शबर घोर, विर्ष मुबकारी जाकि और यह सपना ।। ऐमे पूर दशा में मगन रहे तिहंकाल,
धाव भ्रममान में न पाये रूप अपना ।। गया - चित्रशाला न्यारी, पाजंक न्यागे, सेज न्यारि,
चादर भी न्यागे यहां झूठी मेगे पपना । प्रतोन प्रवम्या मंन निद्रा वाटिकोउ न, विद्यमान पलक न यामें प्रा सपना ।।
वाम प्रोमपन दोउ निद्रा की प्रलंग झे, मुझे सब अंग लखि प्रातम बरपना । न्यागि भयो वेतन प्रवेतनता भाव घोषि,
भाने दृष्टि खोलि के संभाले हप अपना ॥ दोहा-इह विधि जे जागे पुरुष, ते शिवरूप सीव ।
जे मोहि मंगर में, ते जगवासी जोर ॥६॥
अनुष्टुप एकमेव हि तत्स्वाचं विपदामपदं पदम् ।
प्रपदान्येव भासन्ते पदान्यन्यानि यत्पुरः ॥७॥ यह निरन्तर अनुभव करना है कि समस्त भद-विकल्पों से रहित निर्विकल्पवस्तुमात्र, ममन्त चतुगंति सबंधी नाना प्रकार के दुखों के अभाव के लक्षण में युक्त, गुढ़ चैतन्यमात्र वस्तु निश्चय में मोम का कारण है।
भावार्थ-आत्मा मुख म्वरूप है, माता-असाता कर्म के उदय के मयोग में होने वाले जो मुग्न-दुःख है व जीव के स्वरूप नहीं है, कर्म की उपाधियां है । शुद्ध बाप का "मा अनुभवम्प म्वाद माने पर