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समयसार कलश टीका है वह पूरी पर्याय में अर्थात् पर्याय के अन्न नक रहेगी या नहीं रहेगी, परलोक की चिन्ता--कि मर कर किमी अच्छी गनि में जाऊगा या नहीं जाऊंगा-यह कोई जीव के स्वरूप नहीं है । दन्निाा जो चैतन्य लोक है वह निविकल्प है। वह मान म्बा आत्मा का बय दमता है।
भावार्थ - जीव गाम्न जानमात्र ही है। चैतन्यलोक अविनाशी है. एक ( अला। गान है और विमान प्राट है। जिमका पाम स्वरूप पर मभिन्ना है. nमा है. भवज्ञान एरप ।। । प्प .नग्य शिमिन पग्मिामा ज्ञान प्रगाह निग्मत।
मानम अंग अभंग मंग पर धन इम बमत । छिन भंगुर मंमार दिभव, परिवार भार जम् । जहां उनपनि तहां प्रलय. जासु संयोग वियोग तम् । परिग्रह प्रपंचपरगः पथि, इसमय भय उपजे न चिन । मानी निशंक निकलंक निज, मानरूप निरवंत मित
मानचक्र मम साक, जामु अवलोक मोक्ष मुख । इतर लोक मम नाहि नाति जिस माहि दोष दुख । पुन्य मुगति दानार, पाप दुर्गति दुखदायक । दोऊ खन्हित खानि, मैं अम्बन्धित शिव नायक । इहविधि विचार परलोक भय, नाहि ध्यापन करते मुस्यित। जानो निशंक निकतंक मिक, मानरुप निरखंत नित ॥२३॥
गाईलविक्रीडित एषकेव हि वेदना यदचलं ज्ञानं स्वयं के है। निर्भोदितवेघवेदकवलादेकं सदानाकुलः ॥ नवान्यागतवेदनं हि भवेतदीः कुतो मानिनो निःशङ्कः सततं स्वयं स सह ज्ञानं सदा विन्दति ॥२४॥
सम्यग्दष्टि जीव स्वग ही नजर... त्रिकाल प--- अपने स्वभाव मे उत्पन्न ज्ञान अर्थात जीव के जवारा अनुभव करता है, स्वाद लेता है। सम्यग्दृष्टि जीव मान प्रकार के भय से मुक्त होता है । उमको वेदना का भय कहा से हो.---अर्थात नहीं होता। जो पुरष मदा भेदज्ञान में युक्त हैं वे पुरुष निश्चय ही ऐसा अनुभव करते हैं और इसलिए अन्य कर्म के उदय से हुई सुखरूप अथवा दुःखरूप वेदना मे अलग हैं, जो जीव को है ही नहीं।