________________
निरा-अधिकार
मालिपिजीड़ित प्रायोज्येषनुवाहरन्ति मरणं प्राणः किलस्यालको मानं तत्त्ववमेव मास्वततया मोजितने जातुचित । तस्यातो मर न किचन मवेतमीः कुतो मानिनो निःसरः सततं स्वयं स सह मान सा विनति ॥२७॥
सम्पदृष्टि बीब उस मान अर्थात् शुरु पैतन्य बस्तु का निरन्तरता से स्वाद मेता है वो बनादि सिद्ध है. बबण धारा प्रवाह रूप है और बिना सरप सहब ही निष्पम है। सम्यकदष्टि जीव मरण के संका रोष (भय) से रहित है, परीर के नाम के विचार से निःषक है। क्योंकि मात्म-सम्म के प्राणों का बनान-किषित भी वियोग नहीं होता और इसीलिए सम्पष्टिको मरन का भय कहां से होगा ? अपितु नहीं होगा। इनिय, बन, उपास, बाबु ऐसे जो प्राण है उनके बिनाश को मरण कहते है-ऐसा बरहतव में कहा है। परन्तु बीबदम्य का तो निश्चय ही शुटतन्यमात्र प्राण है। र मान किसी भी काल में विनष्ट नहीं होता । वह बिना ही यन्न विनश्वर है।
भावा-सब मिप्यादृष्टि जीवों को मरण का भय होता है । सम्यक्. दृष्टि बीच ऐसा अनुभव करता है कि मेरा र बैतन्यमान स्वस्म है उसका विनास नहीं है। प्राणों का विनाश होता है यह तो मेरा स्वरूप हो नहीं, पुदगल का स्वरूप है। इसलिए मेरा मरण होता हो तो मेंट, ऐसे कैसे -मेरा स्वरूप तो शाश्वत है ॥२७॥
-फरसबीन मासिका, नयनमा पालपाति। मन, सनत तीन, स्वास रस्वासमा विति।
जान प्राण संयुक्त, बीब सिंह कालम बोले। बहरित महिमरल भय, भय प्रमाण जिनवर पवित। पानी निक निब, बागम्य निरत गित ॥२०॥
सानावितरित एमालमनाचनतम सि कितत्वतो वारसारित सव हिमवेलास तीवोदयः ।