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समयसार कलश रोका मो मनपातम परब, सरपवा हि सहाब पर। तिहि कारण रकम होय भनकम कोष पर । जब यह प्रकार निरधार किय, तब मनरमा भय नसत। मानी निशंक निकलंक मिन, मानम्प निरखत नित ॥२५॥
शार्दूलविक्रीड़ित म्वं रूपं किल वस्तुनोऽस्ति परमा गुप्तिः स्वरूपे न य
छतः कोऽपि परः प्रवेष्टुमकृतं मानं स्वरूप नुः । प्रस्थापितरतो न काचन मवेतीः कुतो मानिनो निशः सततं स्वयं स महणं गानं सरा विम्मति ॥२६॥
मम्यकदृष्टि जीव उम शुद्ध चैतन्य वस्तु का निरनर अनुभवन करता है. जो अनादि मिड है, गुरु वस्तु स्वरूप है तथा अखंड धाराप्रवाह रूप है । वस्तु का जनन में रम, नहीं तो कोई चुरा लगा, सम्यकदृष्टि जीव ऐसे अगुप्ति (अमुरमा) के भय से रहित है। जिस कारण शुर जीव को किसी प्रकार का अगुप्तिपना नहीं है । सम्यकटि जीव को हमारा कुछ कोई छीन न ले ऐसा अप्निभय कहाँ से हागा - अर्थात् नहीं होगा। निश्चय ही जो कोई द्रव्य है उसके जो कुछ निज लक्षण हैं वे सर्वथा प्रकार गुप्त (मुरक्षित) हैं। अस्तित्व की दृष्टि में कोई दव्य किसी अन्य द्रव्य में संक्रमण होने में (प्रवेश करने में) समर्थ नही है। आत्म द्रव्य चैतन्य स्वरूप बमानस्वरूप है अनन्य न तो किसी का किया हबा है न कोई उसको हर सकता है।
भावार्ष-सब जीवों को ऐसा भय हो रहा है कि हमारा कोई कुछ पुरा लेगा, छीन लेगा सो सा भय सम्यकदृष्टि को नहीं होता। क्योंकि सम्यकदृष्टि ऐसा अनुभव करता है कि हमारा तो शुर पैतन्य स्वरूप है उसको तो कोई चुरा सकता नहीं, छोन सकता नहीं। वस्तु का स्वरूप मनादि-निधन है ॥२६॥ वर्ष-परम रूप परतच, बासु लन्चन चिन् मंरित।
पर परवेश तहं माहि, माहि महिनगम पति ॥ सो ममम अनूप, यकृत बनषित बटूट पर। ताहि पोर किम गहे, गेर महिलहे और बन ॥ चितवंत एमपरि म्यानबब, तबसमय पवित। मानी निक नितंक निव, जानन निरसंत नित ॥२६॥