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ममयसार कलशटीका भोग क्रियाएं, बिना अभिलाष किए. बरजोरी में प्राप्त होती है। भावार्थजम किमी की गंग, गांक, दारिद्रय बिना उनकी वांछा किए भी प्राप्त होते है वम ही मम्यकदृष्टि जीव की भी जो क्रियाएं होनी है बिना ही वांछा के होती है । मम्यकदृष्टि जीव को बरजोरी में भोग क्रियाएं होते हुए भी मम्यकदष्टि जीव अनिच्छक है। कर्म के उदय मे क्रिया करता है, तो क्रिया का करता क्या होगा ? अर्थात् नही होगा। मम्यग्दष्टि जीव भोग रूप क्रिया का करता किमी भी भांति नहीं है। वह तो शायक स्वरूप मात्र है और अपने निश्चल परम ज्ञान म्वभाव में स्थित है ॥२१॥ मया से निज पूरब कर्म उ सुख, भंजत भोग उदास रहेंगे।
जे दुख में न विनाप करें, निरवर हिये तन ताप सहेंगे। है जिनके हर प्रातम मान, क्रिया करके फल कोन बहेंगे। से मुविचक्षण नायक , जिनको करना हम तो न कहेंगे ॥२१॥
शार्दूलविक्रीडित सम्यग्दृष्टय एव साहसमिर कतुं समन्ते परं यह ऽपि पतत्यमो भयचलस्त्रलोक्यमुक्तावनि । सर्वामेव निसर्गनिर्भयतया शहां विहाय स्वयं जानन्तः स्वमवध्यबोधवपुर्ष बोधाच्यवन्ते न हि ॥२२॥
जो जीवराशि स्वभाव गुणम्प परिणमो है वह ऐसी, मबमे उत्कृष्ट, वोरता (माहम) करने में ममर्थ है कि महान वम पड़ने पर भी गुट म्बम्प के अनुभव के कारण अपने महज गुण मे चलित नहीं होती।
भावार्थ- यदि कोई अनानी ऐमा माने कि जब सम्यकदृष्टि जीव को साता कर्म के उदय में अनेक प्रकार की इष्ट भोग सामग्री प्राप्त है और अमाना कर्म के उदय मे अनेक प्रकार गंग, शोक, दारिद्रय, परीषह, उपमगं इत्यादि, अनिष्ट मामग्री मिली है तो उनको भोगते हुए तो वह गुढ म्वरूप के अनुभव मे चूकना ही होगा। इसका समाधान यह है कि अनुभव मे नही चूकता है । अनुभव नो जमा है वैसा ही रहता है-वस्तु का ऐसा ही म्वरूप है। बज पड़ने पर मब ममारी जीव साहस छोड़ देते हैं. अपनी-अपनो क्रिया करना बन्द कर देते हैं । भावार्थ-मिथ्यादष्टि जीव को उपसर्ग, परी. यह पड़ने पर मान की सुधि नहीं रहती। परन्तु सम्बदृष्टि जीव तो पुर