________________
समयसार कलग टीका दृष्टि जीव को भेद बुद्धि है, इसलिए परद्रव्य का परिग्रह उस के नहीं घटना । हम विषय का यहां में लेकर कथन करंगे ॥१३॥ मया.. प्रातम स्वभाव परभावकीन द्धिताकों,
जाको मन मगन परिग्रहमें रह्यो है। ऐमो प्रविवेक को निधान परिग्रह राग, नाको न्याग हालों समुन्धरूप को है।
प्रब निज-पर भ्रम दूर करिवेको काज, बहरो सुगुरु उपदेशको उमग्यो है। परिग्रहमा परिपह को विशेष अंग,
कहिवेको उद्यम उदार लहलह्यो है। दोहा-त्याग जोग परवस्तु मब, यह सामान्य विचार ।
विविध वस्तु नाना विति, यह विशेष विस्तार ॥१३॥
स्वागता पूर्वबद्धनिजकर्मविपाकाद् मानिनो यदि भवत्युपभोगः । तद्भवत्वय च रागवियोगान्नूनमेति न परिपहनावम् ॥१४॥
जहां मे जीव सम्यक्ष्टि हुआ वहां से विषय सामग्रो में राग-द्वेषमोह से रहित हो गया इसलिए सम्यग्दृष्टि जीव के कदाचित् शरीरादि सम्पूर्ण भोग सामग्री हो तो हो और वह उस सामग्री को भोगता भी हो परंतु यह निश्चय है कि वह विषय सामग्री के स्वीकार के अभिप्राय को नही प्राप्त होता। कोई प्रश्न करे कि मे वैरागी-सम्यग्दष्टि जीव के विषय सामग्री होती क्यों है ? उत्तर- सम्यक्त्व उपजने से पहले जीव मिश्यावृष्टि था, रागी था। उस गगभाव से जो अपने प्रदेशों में ज्ञानावरणादि के रूप में कार्माण वगंणा का बन्ध किया था उसके पककर उदय में आने में विषय सामग्री होती है।
भावार्थ--राग-देष-मोह के परिणामों के मिट जाने पर द्रव्यरूपबाहरी सामग्री भांग बंध का कारण नहीं है, वह तो पहले से बंधे हुए कर्मों की निर्जरा है ।।१४।। चौपाई प्रब करम उदरस भंजे। ज्ञान मगन ममता न प्रपंजे।।
मनमें उदासीनता लहिये । यो तुष परिपहवंत न कहिये ॥१४॥