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निबंरा-आंधकार तैसे समकितो जोब सत्ताको स्वरूप साये, उको उपापो को समाधिमी कहत है। पहिरे सहज को सनाह मन में उछाह,
ठाने मुम्ब राह उबवेग न राहत है। दोहा-मानीमान मगन रहे, राग.विक मल खोय।
चित्त उपास करनो करे, कर्मबन्ध नहि होय ॥ मोह महातम मल हरे, घरे मुमति परकाम । मुक्ति पंच परगट करे, दीपक ज्ञान शिलाम ॥१७॥
शार्दूलविक्रीडित याहक तागिहास्ति तस्य वशतो यस्य स्वभावो हि यः कत्तुं नव कपंचनापि हि परंरन्यादृशः शक्यते । मनानं न कदाचनापि हि भवेत् ज्ञानं भवेत्सन्ततम् मानिन् भुभव परापराधजनितो नास्तीह बन्धस्तव ॥१८॥
यहां कोई प्रश्न करे कि कोई सम्यग्दृष्टि जीव परिणामों से तो शुद्ध है, परन्तु पंचेन्द्रिय के विषयों को भोग रहा है, सो भोगते हुए उसके कर्म का बन्ध है कि नहीं है ? इसका समाधान है कि उसके कर्म का बन्ध नहीं है। वह सम्यग्दष्टि जोव कर्म के उदय मे जो भोग सामग्री उपलब्ध हुई है उसको भोगता है तो भी उसके ज्ञानावरणादि कर्मों का आगमन नहीं है।
भावार्थ-सम्यग्दष्टि जीव के विषय सामग्री का भोग करते हए भी बन्ध नहीं होता, निर्जरा होती है। क्योंकि मम्यग्दृष्टि जीव सर्वथा अवश्य ही परिणामों में शुद्ध होता है। ऐसा ही वस्तु का स्वरूप है। परिणामों की शुद्धता रहते हुए बाहरी भोगसामग्री से बन्ध नहीं किया जा सकता। कोई कहे कि जब सम्यग्दृष्टि जीव भोग भोगता है तो भोग भोगते हुए अशुद्ध परिणाम होते हैं तो वहां रागरूप परिणामों के होने पर बन्ध तो होता ही होगा? सो ऐसा नहीं है-वस्तु का स्वरूप तो यों है कि शुद्ध शान होने पर भोग सामग्री के करने से अशठल्प किया नहीं जा सकता। कितनी ही भोग सामग्री भोगे, शुद्ध शान तो अपने निज स्वरूप अर्थात् शुद्धमान स्वरूप ही रहता है, यह वस्तु का सहज स्वरूप है। जो आत्म द्रव्य शुङ स्वभावरूप परिणमा है वह अनेक प्रकार की मतीत-अनागत-वर्तमान