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समयसार कलश टाका
होते हैं उनके वेग से सम्यग्दृष्टि जीव रोता है। इसका दृष्टांत इस प्रकार है- जसे यह सारे लोक में प्रकट है कि जिस कपड़े में फिटकरी की लांद नहीं लगी है उसमें मजीठ के रंग की डबट्टा कर लेने पर अथवा उसका सयोग करने ग भी उस पर लाल रंग नहीं चढ़ता, बाहर ही बाहर फिरता रहता है। भावार्थ- सभ्यवदृष्टि जीव के पंचेन्द्रिय विषय सामग्री है और उसको वह भांगना भी है परन्तु उसके अनग्ग में राग-द्वेष मोह भाव नहीं है इसलिए कर्म का बन्ध नहीं होता. निजंग होती है ||१६||
सर्वया - जैसे फिटको लोद हरडे की पुट बिना,
स्वेत वस्त्र डारिये मजांठ रंग दोर में । भीग्या रहे चिरकाल मदया न होइ लाल, मेदे नहि अन्तर मफेदी रहे चीन में ॥
तैसे ममferaन्त रागद्वेष मोह बिन, रहे निशि वासर परिग्रह को भोर में । पूरब करम हरे नूतन न बन्ध करे, जावे न जगत सुखराचे न शरीर में ||१६||
स्वागता
ज्ञानवान् स्वरसतोऽपि यतः स्यात्पर्वरागरसवज्र्जनशीलः । लिप्यते सकलकर्मभिरेषः कम्मंमध्यपतितोऽपि : तो न ॥ १७॥ इस प्रकार जो जीव शुद्ध स्वरूप के अनुभवशील हैं उनका विभाव परिणमन मिट कर द्रव्य का शुद्धताम्प परिणमन हुआ है । इसलिए समस्त राग-द्वेष-मोहरूप परिणामों के अनादिकाल के सम्कारों से उनका स्वभाव रहित हो गया है। इस कारण में यद्यपि सम्यग्दृष्टि जीव कर्म के उदय से प्राप्त होने वाली अनेक प्रकार की भांग सामग्री (पचेन्द्रियों के द्वारा भोगी जाने वाली सामग्री) का भोग करता है, सुख-दुख पाता है, तो भी आठों ही प्रकार के ज्ञानावरणादि कर्मों को नहीं बांधता है ।
भावार्थ - चूंकि अंतरंग चिकना नही है, इसलिए बंध नहीं होता, निर्जरा होती है ॥ १७ ॥
सर्वया - जैसे काह देशको वर्तया बनत नर, जंगल में जाई मधु छता को गहन है। बाको लपटाय हुं प्रोर मधुमक्षिका पं, कंबल की प्रोड सों प्रशंकित रहत है ।