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निर्जरा-अधिकार
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स्वागता वेद्यवेदकविभावचल वादेयते न खलु काभितमेव । तेन कामति न किञ्चन विद्वान् सर्वतोऽप्यतिविरक्तिमुपंति ॥१५
इस प्रकार कर्म के उदय से जो नाना प्रकार की सामग्री मिलती है सम्यकदृष्टि जीव उसकी किचित् आकांक्षा नहीं करता। कर्म को सामग्री में में कोई सामग्री जीव के लिए सुख का कारण है, ऐसा नहीं मानता है। मभी सामग्री दुख का कारण है, ऐसा मानता है। सम्यग्दृष्टि जोव सभी कमंजर्जानन सामग्री का मन-वचन-काय को त्रि-शुद्धि के द्वारा, सर्वथा त्यागरूप परिणमन करता है क्योंकि, यह निश्चय है कि जिसकी आकांक्षा करे वह मिलता नहीं । जिस वस्तु या सामग्री की वाछा की जाए और वांछारूप जीव के अशुद्ध परिणाम दोनों ही अशुद्ध, विनश्वर और कर्मजनित हैं। क्षणक्षण में और मे और होते रहते हैं। चिन्तता कुछ है, होता कुछ और है।
भावार्थ-अशुद्ध रागादि परिणाम और विषय सामग्री दोनों ही समयसमय पर नष्ट होते हैं इसलिए जीव का स्वरूप नहीं है। इसलिए सम्यकदष्टि जीव के ऐसे भाव का सर्वथा त्याग है। इस प्रकार सम्यग्दष्टि के बन्ध नहीं है, निर्जरा है ॥१५॥ संबंया-जे जे मनवांछित विलास भोग जगत में,
ते बिनासीक सब राम रहत हैं। और जेजे भोग प्रभिलाष चित परिणाम, ते ते बिनासीक पाररूप हूबहत हैं।
एकता न बुहों माहि ताते वांछा फरे नाहि, ऐसे भ्रम कारिजको मूरख बहत है। सतत रहे सचेत परसों न करे हेत, यात मानवंत को प्रबंधक कहत है ॥१५॥
स्वागता मानिनो न हि परिग्रहमा कर्मरागरसरिक्ततयंति । रङ्गयुक्तिरकवायितवस्त्रे स्वीकृतंव हि बहिलठतोह ॥१६॥
सम्यग्दृष्टि जीव के जितनी भी विषय सामग्री अथवा उसको भोगने की क्रिया है, उनका ममतारूप स्वीकारपना निश्चय से नहीं है। कर्म की मामग्री को अपना जानने में जो उसमें रजने के (गुब पाने के) परिणाम