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निर्जरा-अधिकार
१२३ जाए, जिसमे उसके सभी मनोरथ पूरे होते हैं तो वह व्यक्ति नोहे, तांबे या चांदी इत्यादि धातुओं का संग्रह नहीं करता। उसी प्रकार सम्यग्दष्टि जीव के पास शुद्ध स्वरूप के अनुभव रूप चिन्तामणि रत्न है जिसमें सभी को का क्षय होना है और परमात्मा को प्राप्ति होती है। अतीन्द्रिय मख की प्राप्ति होती है। ऐसा सम्यग्दष्टि जोव शभ-अशभरूप अनेक क्रियाओं के विकल्प का मग्रह नहीं करता जिनमें कोई कार्य सिद्धि नहीं होती। शुद्ध स्वरूप के अनुभवरूपो चिन्तामणि रत्न की महिमा वचन गोचर नही है और वह परमपूज्य है ॥१२॥ पालिका अनुभव चिन्तामणि रतन, जाके हिय परकाश।
सो पुनीत शिवपद लहे, बहे चतुर्गति बास ॥ दहे चतुर्गति बाम, प्रास धरि क्रिया न महे । नतन बंध निगेधि, पूर्वकृत कर्म बिहणे ॥ ताके न गिग विकार, न गिण यह भार, न गणु भव । जाके हि माहि रतन चितामगि अनुभव ॥१२॥
वसंततिलका इत्यं परिग्रहमपास्य समस्तमेव मामान्यतः स्वपरयोरविवेकहेतुं । प्रहानमुज्झितमना अधुना विशेषाद्भूयस्तमेव परिहर्तुमयं प्रवृत्तः।।
जीव का कर्म मे एकत्वबुद्धिम्प जो मिथ्यात्व है वह कैसे छुटे, ऐसा जिनका अभिप्राय है उनको ग्रन्थकर्ना यहां मे आरम्भ करके कुछ विशेष कहने का उद्यम करेंगे । जितने भी परद्रव्यम्प परिग्रह है उनके भिन्न-भिन्न नामों के विवरण सहित छोड़ने अथवा छुड़वाने के लिए अभी तक जो कुछ कहा वह ऐसे है कि जितनी भी पुदगल मामग्री कर्म की उपाधि से प्राप्त है, परद्रव्य है, सो त्यागने योग्य है ।सा कहकर परद्रव्य का त्याग कहा। अर्थात् जितना परद्रव्य है उनना सब त्याज्य है। क्रोध परद्रव्य है, इसलिए त्याज्य है, मान परद्रव्य है इसलिए त्याज्य है, इन्यादि । एमी नम्ह भोजन परद्रव्य है इसलिए त्याज्य है, पानी पीना परद्रव्य है इसलिए त्याज्य है । परद्रव्य परि. ग्रह शुद्धचिद्रूप-वस्तु और द्रव्यकर्म, भावकम तथा नोकमं के एकत्वरूप संस्कार का कारण है।
भावार्थ- मिथ्यादष्टि जीव की जीव और कम में एकत्त्व बुद्धि है। इसलिए मिथ्यादृष्टि जीव में परद्धव्य का परिग्रह घटित होता है। सम्यक