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ममयसार कमश टोका प्रभु मुमगे पूना पढ़ो, करो विविध व्यवहार। मोक्ष म्बरपो प्रातमा, मानगम्य निरधार ॥१०॥
द्रुतविलम्बित पमिदं ननु कर्मदुरामदं सहजबोधकलासुलभं किल । तत इदं निजबोधकलावलात्कलयितुं यततां सततं जगत् ॥११॥
इमलिए है नीनों लोकों की जीव गशि, अपने शुद्ध मान को प्रत्यक्षरूप में अनुभव करने को मामयं के बल पर तुम्हें निर्विकल्प शुद्ध शानमात्र. वस्तु का निरन्तर अभ्याम करने के निमित्त अखण्ड-धारा प्रवाहरूप से यत्न करना है । निश्चय ही वह ज्ञानपद जितनी भी क्रियाएं हैं उनसे अप्राप्य है। जब कि ज्ञान के निरंतर अनुभव में महज ही पाया जाता है।
भावार्थ · शुभ, अगभरूप जिननी भी क्रियाएं हैं उनका ममत्व छोड़ कर एक शुद्ध स्वरूप का अनुभव जानपद की प्राप्ति का कारण है ॥११॥ दोहा बहविधि क्रिया कलापसों, शिवपद लहे न कोय ।
मानकला परकाश ते, सहज मोमपद होय ॥ जानकला घट-घट बसे, योग पुक्ति के पार । निज-निज कला उदोत करि, मुक्त होइ संसार ॥११॥
उपजाति अचिन्त्यशक्तिः स्वयमेव देवश्चिन्मानचिन्तामणिरेष यस्मात् । सर्वार्षसिद्धात्मतया विधत्ते ज्ञानी किमन्यस्य परिग्रहेण ॥१२॥
सम्यग्दृष्टि जीव यह जानकर निर्विकल्प विद्रूपवस्तु का निरन्तर अनुभव करता है कि उममें चतुति संमार सबधो दुखों का विनाश. अतीन्द्रिय मुजों की प्राप्ति जैसे कार्यों को सिद्धि होती है। वह मानपद ऐसा है कि उसके शद्ध स्वरूप में अन्य जितने भी विकल्प हैं सबबाहर हैं। विवरणशुभ-अशुभ त्रियारूप अथवा रागादि विकल्परूप अथवा द्रव्य के भेदों के विचाररूप जो भी अनेक विकल्प हैं उनके सावधानी ने प्रतिपालन अथवा आचरण अथवा स्मरण में कोनसी कार्य की सिद्धि है ? कोई कार्यसिद्धि नहीं है केवल भरम है। यह निश्चय में जानो कि शुद्ध जीववस्तु अपने में ही शुद्ध मानमात्र के अनुभवरूप चिन्तामणि रत्न है. इसमें कोई धोखा नही है।
भावार्थ-जैसे किसी पुण्यात्मा जीव के हाथ चिन्तामणि रत्न पड़