________________
१२.
समयसार कलश टोका मन पर्ययज्ञान, केवलज्ञान इत्यादि उसके महज ही पर्यायरूप अंशभेद है। इसलिए वे अवश्य प्रगट होते हैं। भावार्थ अगर कोई आशंका करे कि ज्ञान तो शान मात्र है उनके ये मनिज्ञान आदि पांच मंद क्यों है ? उसका समाधान है कि ये जान की पर्याय हैं इसमें विराधी बात तो कोई नहीं है । वस्तु सहज ही ऐसी है। पर्याय मात्र के विचार में मतिजान आदि पांच भेद ऐसे ही हैं । परन्तु वम्बुमात्र का अनुभव हो तो वह ज्ञान मात्र है और जितने भी विकल्प है मब मठे हैं। इस प्रकार विकल्प कोई वस्तु नहीं है, वस्तु तोशान मात्र है। वह निमंल मे निमंल है। भावार्थ अगर कोई यह माने कि जितनी ज्ञान की पर्याय है वे सब अगद्ध प है सो ऐसा तो नहीं है । इसलिए जैसा शान शुद्ध है, वैसे ही ज्ञान की पर्याय वस्तु का स्वरूप है इसलिए शुद्ध स्वरूप है। परन्तु एक पर्याय-विगंप को अवधारण करते हुए विकल्प उपजता है और अनुभव निर्विकल्प है। इसलिए वस्तुमात्र का अनुभवन करते हए समस्त पर्याय भी जान मात्र है। इसलिए ज्ञानमात्र अनुभव योग्य है। जान ने समस्त भावमण्डल-- जीव, पुदगल, धर्म, अधम, काल व आकाश समस्त द्रव्यों की अतीत-अनागत-वर्तमान अनन्त पर्यायों को इस प्रकार ग्रहण किया है कि जैसे कोई किसी ग्मायनभूत दिव्य औषधि के ममह मे सर्वांग मग्न हुआ हो। भावार्थ जैसे कोई किसी परम रसायनभून दिव्य औषधि को पी ले तो उसके सर्वांग में सरंगावली मी उपजती है। उसी प्रकार समस्त द्रव्यों को जानने में ज्ञान समर्थ है इसलिए उसके सर्वांग में आनन्द तरंगाबली गभित है ॥ संबंया-जाके उर अन्तर निरन्तर प्रनन्त द्रव्य,
भाव भासि रहे स्वभाव न टरत है। निर्मल सों निर्मल मु जोबन प्रगट जाके, बट में प्रघट रस कौतुक करत है।
जाने मति, भूति, प्रोषि मनपर्यं, केवला, पंचषा तरंगनि उमंगि उधरत है। सो है मान उदधि उदार महिमा अपार, निराधार एक में अनेकता परत है ॥६॥
शार्दूलविक्रीड़ित नियन्ता स्वयमेय दुष्करत मोक्षोन्मुखः कर्मभिः नियन्ता परे महावृततपोमारेण भग्नाश्चिरं ।