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नियंग- अधिकार
११६ मुखों को अज्ञानी मुख मानना है परंतु जानीजीव जो दुःखरूप है ऐसे मुखों को अगीकार करने में असमर्थ है। भावार्थ - जानोजीव विषय-कषाय को दुखरूप जानता है। अपने द्रव्य मबंधी आत्मा के शुद्ध स्वरूप में परिणमन करता रहना है, चेनन द्रव्य के अनुभव अर्थात् स्वाद की महिमा में चर्या कर रहा है, जान को नाना प्रकार पर्यायां को मेटने वाला है तथा निभेद सत्तामात्र व का हो अनुभव करता रहता . संबंया---पंडित विवेक लहि एकता की टेक गहि,
हुंदुज प्रवस्था को प्रनेकता हरतु है। मति श्रुति प्रविधि किल्प मेटि. निर विकलप ज्ञान मनमें घग्तु है ॥
इन्द्रिय जनित मुख दावों विमुख हके, परम के रुप करम निबंरतु है। महज समाधि साधि त्यागी परको उपाधि, प्रातम बाराघि परमातम करतु है ॥६॥
शार्दूलविक्रीडित अच्छाच्छाः स्वयमुच्छलन्ति यदिमाः संवेदनव्यक्तयो निष्पोताखिलभावमण्डलरमप्राग्भारमत्ता इव । यस्यामिन्नरसः स एष भगवानेकोऽप्यनेकोमवन वलगत्युत्कलिकाभिरद्भुनिश्चितन्यरत्नाकरः ॥६॥ यह जिम जीव द्रव्य का वर्णन है, वह महासमुद्र के समान है।
भावार्थ-जीवद्रव्य को समुद्र को उपमा देने में यह कहा है कि द्रव्याथिकनय मे वह एक है । पर्यायाथिकनय मे अनेक है। जमे समुद्र एक है परंतु तरंगावलि के विचार में अनेक है। समुद्र में अनेक तरंगावलियों की भांनि जीव में एक ज्ञानगुण मतिज्ञान-तमान इत्यादि रूपों के अनेक भंदों में अपनी ही भक्ति में अनादि में परिणमन करता है। जितनी भी पर्याय हैं उनकी भिन्न सत्ता नहीं है बल्कि वह मव एक ही सत्य है। यद्यपि उसमें जान-दर्शन-मोठ्य-वीयं इत्यादि अनेक गुण विराजमान हैं तो भी सतास्प से एक है। अंगों के विचार में अनेक है। अनन्तकाल से चारों गतियों में फिरते-फिरने भी जो मुग्य नहीं पाया, प्रेमे अनन्त सुख का विधान है। जिस जीव के प्रत्यक्षरूप में मवंदन भान है, मनिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान,