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ममयमार कलश टोका जो मंबर पद पार प्रनंदे, मो पूरवकृत कम निकले। जो प्रफंव हरि न फंदे, मो निजंग बनारमि बंदे ॥१॥
अनुष्टुप तग्नानम्यव मामध्यं विरागस्यंव वा किल । यत्कोऽपि कम्ममिः कम्मं भुंजानोऽपि न बध्यते ॥२॥
मी गद स्वरूप के अनुभव में कोन मी मामथ्यं है. जिसमे रागादि अगदपना घटता है, वह मी मामय्यं है कि पूर्व के बध हा ज्ञानावरणादि कर्मों के उदय में प्राप्न) हा गरीर, मन, वचन. दन्द्रिय मुख-दुःखरूप नाना प्रकार की मामग्री को यद्धपि काई मम्यग्दृष्टि जीव भोगता है नथापि ज्ञानावग्णादि कर्मा को नहीं बांधता है । जैसे कोई वैद्य प्रत्यक्ष हो विष को पीना है, तो भी नहीं मरता है. क्योकि वह गुण को जानना है. इसलिए अनेक यनन भी जानता है और विप को प्राणघातक क्ति दर कर देता है। वही विष ओर कोई व्यक्ति खाय तो नत्काल मर जाए परन्तु उमी में वैद्य नहीं मरता। जानने की मी मामयं है। या जने कागद मदिरा पीना है. लेकिन परि. णामी मनिता और मदिरा पाने में मचि नहीं है. मा व्यक्ति मनवाला नहीं होना है। जमा था वगाहा रहता है। मद्य ना मा है कि अन्य कोई पोले तो तत्कान मनवाना हो जाए। परन्तु यदि कोई उसे पीकर भी मत. वाला न दा नी वह अनि परिणाम का गुण जानना चाहिए। उसी प्रकार कोई मम्यग्दष्टि जीव नाना प्रकार सामग्री को मांगता है. मख-दुख को जानता है परन्न अपने ज्ञान में गम्वरूप आत्मा का अनुभव होने में "मा अनुभवन करता है कि मी मामग्री कम का स्वरूप है तथा जीव के लिए दखमय है, जीव का स्वरूप नहीं है उपाधि है. म जीव को कर्म का बन्ध नहीं होता है। मामग्री तो वहा है जिसके भोगने मे मिथ्यादष्टि जीव को मात्र कर्म का बन्ध हो होता है। यदि जीव को कर्म बन्ध न हों तो जानना कि यह उसके ज्ञान को मामथ्र्य है । या यों कही कि सम्यग्दृष्टि जीव यद्यपि नाना प्रकार के कमों के उदय का फल भोगता है परन्तु अन्नस् में शुद्ध स्वरूप की हो अनुभवन करता है इसलिए कमों के फल में उसको रतिया रुचि नही उपजती, उनको उपाधि जानता है-दुम जानता है इसलिए उनके प्रति अत्यन्त रूखा है । ऐसे जीव को कर्मों का बन्ध नही होता है। म्ह रूले परिणामो को मामप्यं है। इस प्रकार यह अपं ठहरा कि सम्यग्दष्टि जीव