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रधिकार संबंया-शुरु प्रछेर प्रमेव अबाधित, मेव विज्ञान सुतीछन प्रारा।
अंतर भेद स्वभाव विभाव, करे जड़ चेतन रूप दुफारा ॥ सो जिन्ह के उर में उपज्यो, न रुचे तिनको पर संग सहारा। प्रातम को अनुभो करि ते, हरसे परसे परमातम पारा ॥२॥
मालिनी यदि कथमपि धारावाहिना बोधनेन ध्रुवमुपलभमानः शुद्धमात्मानमास्ते । तदयमुदयदात्माराममात्मानमात्मा
परपरिणतिरोधाच्छुदमेवाभ्युपंति ॥३॥ अगदपने का विनाश करते, शद्ध (स्वरूप) की प्राप्ति होने पर, ममम्न द्रव्यकर्मों और भावको मे हित आन्मा प्रत्यक्षरूप में अपने स्वरूप की प्राप्ति करता है. और अपने स्वद्रव्य में निवाम पाता है। चेतन द्रव्य काललब्धि पाकर सम्यक्त्व पर्यायरूप परिणमन करता है तथा द्रव्यकर्म व भावकम से रहित होकर भावथत ज्ञान के द्वारा अपने निज स्वरूप का आस्वादन करता हुआ धागप्रवाह रूप से निरनर प्रवत्तंता है। यह बात निश्चय है ॥३॥ भावार्थ-जो कहूं यह जीव पदारथ, प्रोसर पाय मिण्यात मिटाये।
सम्यकपार प्रवाह बहे गुरण, ज्ञान उद मुख ऊरष धाये ॥ तो अभ्यन्तर बवित भावित, कर्म कलेश प्रवेश न पाये। प्रातम साधि प्रध्यातम के पय, पूरण ह परब्रह्म कहावे॥
मालिनी निजमहिमरतानां भेदविज्ञानशक्त्या भवति नियतमेषां शुद्धतत्त्वोपलम्मः । प्रचलितमखिलान्यद्रव्यदूस्थितानां
भवति सति च तस्मिन्नमयः कर्ममोक्षः ॥४॥ जो जीव शुद्ध स्वरूप परिणमन में मग्न हैं उनको भेदविज्ञान अर्थात् उम अनुभव के द्वारा कि ममग्न परद्रव्य मे आत्मम्वरूप भिन्न है, मकल कर्म से रहित अनंतचतुष्टय में विराजमान आत्मा वस्तु की प्राप्ति होती है । शुद्ध