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mere-अधिकार
न अंत है और जो ज्ञानावरणादि पुद्गल कर्मपिड अथवा राग-द्वेष-मोहरूप अशुद्ध परिणामों का जड़ से क्षय करने वाला है। शुद्ध स्वरूप के अनुभव में जो जीव मग्न हैं वे कर्म की सामग्री, इन्द्रिय, शरीरादि में आत्मबुद्धि के झूठे भ्रम का तत्कालमात्र विनाश करके सर्व उपाधि से रहित उस चैतन्यद्रव्य अर्थात् परमात्मपद को प्रत्यक्षरूप से प्राप्त होते हैं जिसके असंख्यात प्रदेशों में ज्ञान विराजमान है, जो चेतनगुण का पुंज है, समस्त विकल्पों से रहित निर्विकल्प वस्तु मात्र है और जो कर्म के संयोग को मिटा कर निश्चल हुआ है ।
भावार्थ- परमात्मपद की प्राप्ति होने पर समस्त विकल्प मिट जाते
हैं ।। ११ ।।
सर्वया - करम के चक्र में फिरत जगवासी जीव, ह्र रह्यो बहिरमुख व्यापत विषमता । प्रन्तर सुमति प्राई बिमल बड़ाई पाई, पुद्गल सों प्रीति टूटी छुटो माया ममता ॥
शुद्ध नं निवास कोनों अनुभौ प्रम्यास लीनो, भ्रमभाव छोड़ दोनों, भोनो बित्त समता । अनादि अनन्त प्रविकलप प्रचल ऐसो, पद प्रविलम्बि प्रवलोके राम रमता ॥ ११ ॥
मन्दाक्रांता
रागादीनां भगिति विगमात्सर्वतोऽप्यास्त्र वारणां नित्योद्योतं किमपि परमं वस्तु सम्पश्यतोऽन्तः । स्फारस्फारः स्वरसविसरः प्लावयत्सर्व भावा
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नालोकान्तादचलमतुलं
ज्ञानमुन्मग्नमेतत् ॥ १२॥
जिस जीव का शुद्ध चैतन्य प्रकाश प्रगट हुआ है वह निर्विकल्प सत्तामात्र जो कुछ वस्तु है उसका भावश्रुतज्ञान के द्वारा प्रत्यक्षरूप से अवलंबन करता है ।
भावार्थ- शुद्ध स्वरूप के अनुभव के समय जीव काठ की भांति जड़ तो नहीं हो जाता परन्तु सामान्यरूप से सविकल्पी जीव की भांति विकल्पी भी नहीं होता । भावनज्ञान के द्वारा कुछ निविकल्प वस्तु मात्र अवलंबता