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maa-अधिकार शार्दूलविक्रीडित
सन्यस्यन्निजबुद्धिपूर्वमनिशं रागं समग्रं स्वयम् वारंवारमबुद्धिपूर्वमपि तं जेतुं स्वर्शाक्त स्पृशन् उच्छिन्दन् परवृत्तिमेव सकलां ज्ञानस्य पूर्णो भवन्नात्मा नित्यनिरालवो भवति हि ज्ञानी यदा स्यातवा ॥४॥
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जब किसी जीव का अनंतकाल से हो रहा विभाव ( मिथ्यात्व भाव ) रूप परिणमन निकट सामग्री पाकर छूट जाए तब वह स्वभाव ( सम्यक्त्व) रूप परिणमता है। ऐसा सम्यक्दृष्टि जीव समस्त आगामी काल में सर्वथा, सर्वकाल अस्त्रव से रहित होता है।
भावार्थ-यदि कोई संदेह करे कि सम्यकदृष्टि जीव आस्रव सहित है या आत्रव से रहित है ? उसका यह समाधान है कि आस्रव से रहित है। वह ऐसे कि अपने मन के आलम्बन से जितने भी असंख्यात लोकमात्र भेदरूप मोह-राग-द्वेषरूप अशुद्ध परिणाम हैं अथवा परद्रव्य से रंजित परिणाम हैं, उन सबको सम्यक्त्व की उत्पत्ति से लेकर आगामी सब काल में सहज ही छोड़ता है। भावार्थ- नाना प्रकार के कर्मों के उदय से नाना प्रकार की संसार शरीर भोग सामग्री होती है । सम्यकदृष्टि जीव ऐसी समस्त सामग्री को भोगते हुए भी मैं देव हूं, मैं मनुष्य हूं, मैं दुःखी हूं, मैं मुखी हूं, इत्यादि रूप से आनन्दित नहीं होता । जानता है कि मैं चतनमात्र शुद्ध स्वरूप हूं। यह सब कर्म की रचना है। ऐसे अनुभव से मन का व्यापार रूप राग मिट जाता है ॥ मन के आलम्बन के बिना भी मोह कर्म के उदय का निमित्त कारण पाकर जीव के प्रदेश, जो अशुद्धतारूप परिणमन कर रहे हैं, सम्यकदृष्टि जीव, उनको भी जीतने के निमित्त अखण्डित धारा प्रवाहरूप शुद्ध चैतन्य वस्तु को स्वानुभव प्रत्यक्षपने से आस्वादना है । भावार्थ - मिथ्यात्व-राग-द्वेष रूप जो जीव के अशुद्ध चेतनारूप विभाव परिणाम हैं वे दो प्रकार के हैं- एक परिणाम बुद्धिपूर्वक हैं और एक परिणाम अबुद्धिपूर्वक हैं। विवरण बुद्धिपूर्वक परिणाम उनको कहते हैं जो मन के द्वार से प्रवर्तन करते हैं, बाहरी विषयों के आधार से प्रवर्तन करते हैं और प्रवर्तन होते हुए जीव स्वयं भी जानता कि हमारे परिणाम इस रूप हैं। तथा अन्य जीव भी अनुमान से जानते कि उस जीव के ऐसे परिणाम हैं। ऐसे परिणामों को बुद्धिपूर्वक परिणाम