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मानव अधिकार जब निर्वाण पदवी को पा लेता है उस समय का क्या कहना-तब तो वह साक्षात् परमात्मा है ॥६॥ संबंया-पूरब अवस्था बेकरमबन्ध कोने प्रब,
तेई उदय प्राह नाना भांति रस देत हैं। केई शुभ साता केई प्रशुभ प्रसातारूप, ई में न रागन विरोष समवेत हैं।
पवायोग्य क्रिया करें फल की नइच्छा परें, जीवन • मुकति को विरद गहि लेत हैं। यातें जानवन्त को न मालव कहत कोउ, मुखता सों न्यारे भये शुद्धता समेत हैं॥६॥
अनुष्ट्रप रागद्वेषविमोहानां ज्ञानिनो यदसंभवः । तत एव न बन्धोऽस्य ते हि बन्धस्य कारणं ॥७॥
ऐसा कहना कि- सम्यग्दृष्टि जीव के बन्ध होता है ऐसी प्रतीति क्यों होती है, इसका और विवरण देते हैं । सम्यग्दृष्टि जीव में राग अर्थात् रंजायमान होने का परिणाम, देष अर्थात् उद्धंग अथवा मोह अर्थात् विपरीतपना ऐसे जो अशुद्ध भाव हैं वे विद्यमान नहीं हैं।
भावार्थ-सम्यग्दृष्टि जीव कर्म के उदय से रंजायमान नहीं होता, इसलिए उसके रागादिक नही हैं। इसी कारण मे सम्यग्दष्टि जीव के ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म का बन्ध नहीं है निश्चय में ऐसा ही द्रव्य का स्वरूप है। इस प्रकार राग-देष-मोह ऐसे जो अशुद परिणाम है वे ही बंध के कारण हैं। भावार्थ- यदि कोई अज्ञानी जीव ऐसा माने कि सम्यग्दष्टि जीव के चारित्रमोह का उदय होते उस उदय मात्र के होने से आगामी ज्ञानावरणादि कर्म का बन्ध भी होता होगा तो उसका समाधान यह है कि-बारित्रमोह के उदय मात्र से बंध नहीं होता। उदय होने पर जो राग-दष-मोह परिणाम हों तो बन्ध होता है अन्यथा और कारण हजारों भी हों तो भी कर्मबन्ध नहीं होता । और दूसरी ओर राग-द्वेष-मोह परिणाम मिथ्यात्व कर्म के उदय की शक्ति से होते हैं । मिथ्यात्व के जाने पर अंकले चारित्रमाह के उदय की शक्ति नहीं कि वह राग-द्वेष-मोह रूप परिणमन करवा दे। इस प्रकार सम्यकदृष्टि जीव के राग-देष-मोह परिणाम नहीं होते और इस