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समयमार काला टीका
हं. मेरे लिए विषय-कपाय इत्यादि सामग्री निषिद्ध है। सा जानकर ही विषय-गाय आदि मामग्री को छोड़ता है, अपने आपको धन्य मानता है.
और अपने माग को मोक्षमार्ग मानता है। परन्त विचार कगे तो मा जीव मिथ्याष्टि है। नमवला को करना है. कोई भलागना तो नहीं है। जो मिथ्या जीव गमवाना है.. गदम्य का कियात्रा में ग्न है आर ममजना है कि हम गहम्य है, हमारे लिए विपय-सपाय आदि क्रियाग योग्य हैं और
म प्रकार विषय-पाय का सेवन करना है, वह भी जीव मिय्यादष्टि है। कम का बन्ध करता है । वह कम-जनित पर्याय को ही अपने कप जानता है। उमको जीव पद ग्वा का अनुभव नही ।।।। मक्या जमे कार चण्डाली जुगल पुत्र जने तिन,
एक दीयों बामनक एक घर गयो है। बामन कहायो जिन मद्य मांस न्याग कीनो. चापटान कहाशे जिन मद्यमांम चास्यो है।
नमे एक वेदनीय करम के जुगल पुत्र, एक पाप एक पुन्य नाम भिन्न भाल्यो है । दहं माहि दोर धप, दोऊ कर्म बन्ध रूप, याते जानवन्त कोऊ नाहि भिलाग्यो है ॥२॥
उपेन्द्रवज्रा हेतुस्वभावानुभवाश्रयाणां, सदाप्यभेदान्न हि कर्मभेदः तद्वन्धमार्गाश्रितमेकमिष्टं, स्वयं समस्तं खलु बंधहेतुः ॥३॥
मान्यता के अन्तर में कोई प्रश्न करना है और कहना है कि कर्मों में भंद तो है-कोई कर्म गम है, कोई अशभ है। उनके हेत में भेद है, स्वभाव में भेद है, अनुभव में भंद है और उनका आश्रय भी भिन्न-भिन्न है। इम नरह चार प्रकार के कर्मों में भेद है। उनके हेतु अर्थात् पारण में इस प्रकार भेद है कि संक्लेश परिणामों में अशभ कर्म वधता है और भ परिणामों में शुभ बन्ध होता है। स्वभाव भेद अर्थात् प्रकृति भेद इस प्रकार है कि अशुभ कर्मों की प्रकृति भिन्न है तथा उनकी पद्गल कम वर्गणा भिन्न है और शुभ कर्मों की प्रकृति भिन्न है और उनकी पद्गल कमवगंणा भो भिन्न है। कर्मों के अनुभव में अर्थान उनके रस में भी भेद है--अभ कर्म के उदय में