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चतुर्थ अध्याय पुण्य-पाप एकत्व द्वार
व्रतविलंबित तत्य कर्म शुभाशुममेवतो, द्वितयतां गतमण्यमुपानयन् । ग्लपितनिर्भरमोहरजा प्रयं, स्वयमुदत्यवबोधसुधाप्लवः ॥१॥
जो गगादि अशुद्धचेतनरिणाम अथवा ज्ञानावरणादि पुद्गल पिंडरूप में एकत्वपना साध रहा था (मान रहा था) उममें दोपना करके, अत्यन्त घने मिथ्यान्व अंधकार को दूर करके, विद्यमान शुद्ध ज्ञान प्रकाश रूपी चन्द्रमा जैसा था, वैसा ही अपने तेजपुंज मे प्रगट हआ। पहले भले और बुरे के चक्र में विहार कर रहा था जो अब छूट गया।
भावार्थ-- मिथ्यादष्टि जीव का ऐसा अभिप्राय है कि दया-व्रत-तप-शीलसंयम आदि जितनी भी शुभ क्रियाएँ हैं और उनके अनुसार जो शुभोपयोग परिणाम हैं तथा उन परिणामों के निमित में जो साता-कर्म आदि पुण्यम्प पुद्गलपिड का बंध होता है वह अच्छा है, जीव को मुखकारी है या, हिसाविषय-कषायरूप जितनी क्रियाएं है उनके अनुमार जो अशुभोपयोगरूप संक्लेश परिणाम हैं तथा उनके निमिन से अमाता कर्म आदि पापरूप पुद्गल पिंड का बन्ध होता है वह बुरा है, जीव को दुःखकर्ता है। परंतु-अशुभ कर्म जीव को दुखकर्ता है तो शुभकर्म भी जीव को दुःखकर्ता ही है। कर्म में तो कोई अच्छा नही, परन्तु मिथ्यादष्टि जीव अपने मोह के कारण (शभ) कर्म को भला मानता है-ऐसी सम्यक् प्रतीति शुद्ध स्वरूप के अनुभव होने पर होती है ॥१॥ कवित-जाके उ होत घट अंतर, विनसे मोह महा तम रोक,
शुभ पर प्रशुभ करम को दुविधा, मिट सहज दोसे इक पोक ॥ जाकी कला होत संपूरण, प्रतिभासे सब लोक प्रलोक । सो प्रतियोष शशि निरखि बनारसि, सीस नमाइरेत पग पोक ॥१॥