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गमयसार कलश टीका
शार्दूलविक्रीडित
कर्ता कर्मरण नास्ति नास्ति नियतं कर्मापि तत्कर्तरि, द्वन्द्वं विप्रतिविध्यते यदि तदा का कर्तृकर्मस्थितिः । ज्ञाता ज्ञातरि कर्म कर्मरिण सदा व्यक्तेति वस्तुस्थितिनेपथ्ये वत् मानटीति रभसान्मोहस्तथाप्येव किं ।। ५३ ।।
मिथ्यात्व रागादि अशुद्ध ज्ञानावरणादि पुद्गल पिउ कर्म में, निश्चय से एक द्रव्यपना तो नहीं है। और उधर ज्ञानावरणादि पुद्गल पिंड कर्मों में तथा अशुद्ध भावों में परिणमन कर रहे मिथ्यादृष्टि जीव में भी एक द्रव्यपना नहीं है । जब जीवद्रव्य का तथा पुद्गलद्रव्य का एकपना निषिद्ध है तो फिर जीव ज्ञानावरणादि कर्म का कर्ता है-ऐसी अवस्था कहां में घटित होगीअपितु नहीं घटती है। जीव द्रव्य का अपने द्रव्य से ही एकत्वपना है । सब ही काल में ऐसा ही वस्तु का स्वरूप है। ज्ञानावरणादि पुद्गलपिड अपने ही पुद्गलपिड रूप हैं । द्रव्य का ऐसा स्वरूप अनादि-निधन रूप से प्रगट है । वस्तु का स्वरूप तो जैसा कहा वैसा है फिर यह बड़े अचम्भे की बात है कि मिथ्यामागं मे जीवद्रव्य की पुद्गन्नद्रव्य के साथ एकत्वरूप बुद्धि का क्यों निरन्तर प्रवर्तन हो रहा है।
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भावार्थ - जीवद्रव्य और पुद्गल द्रव्य भिन्न-भिन्न है । परन्तु मिध्यात्वरूप परिणमित होता हुआ जीव इनको एक जानता है यह कितने अचम्भे की बात है । आगे यह वर्णन करेंगे कि मिथ्यादृष्टि के एकरूप जानने पर भी जीव- पुद्गल कैसे भिन्न-भिन्न है ।। ५३ ।।
- करमपिड प्ररु रागभाव मिलि एक होय नहि,
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दोऊ भिन्न स्वरूप वर्साह, बोऊ न जीव महि । करमपि पुद्गल, भाव रागादिक मूढ भ्रम, अलख एक पुद्गल अनंत, किमि धरहि प्रकृति सम ॥ निजनिज बिलास गुत जगत महि, जया सहज परिणमहि जिम, करतारजी बजड़ करम को, मोह विकल जन कहहिं इम ॥५३॥ मंदाक्रांता
कर्ता कर्ता भवत न यथा कर्म कर्मापि नंब, ज्ञानं ज्ञानं भवति च यथा पुद्गलः पुद्गलोऽपि ।