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कर्ता-कर्म-अधिकार
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द्रव्य स्वरूप ऐसा है कि जो बेतन पदार्थ पहले अपने स्वरूप से नष्ट हुआ था वह फिर से उसी स्वरूप को प्राप्त हुआ। जो अनुभव के रसिक पुरुष है वे अपने ज्ञानगुण का अपने आप में निरन्तर अनुभव करते हैं । जैसे पानो का शीत-स्वच्छ द्रवत्व स्वभाव है परन्तु उस निज स्वभाव से कभी च्युत होकर वृक्षरूप आदि परिणमन करता है । वैसे ही जीव द्रव्य का स्वभाव केवलज्ञान, केवलदर्शन, अतीन्द्रियमुख इत्यादि अनन्तगुण है परन्तु अनादि काल में लेकर उनसे भ्रष्ट हो रहा है, विभावरूप परिणमित है । अर्थात् कर्मजनित जितने भी भाव है उनमें अपनेपने को जो संस्कार बुद्धि है उसके समूह में फंसा भवरूपो वन में भ्रमण कर रहा है ।
भावार्थ - जैगे पानी अपने स्वाद में भ्रष्ट हुआ नाना वृक्षरूप परिगमन कर रहा है वैसे ही जावद्रव्य अपने शुद्ध स्वरूप से भ्रष्ट हुआ नाना प्रकार चतुर्गतिरूप (पर्यायरूप) अपने आपको अनुभव करता है। ऐसा क्यों है ? ऐसी सरकार बुद्धि जोव को अनादिकाल से मिली है। जैसे नोचा मार्ग पाकर पानी फिर में अपने निज स्वरूप को प्राप्त होता है । वैसे ही शुद्ध स्वरूप कं अनुभव में जीव द्रव्य का जैसा स्वरूप था वंगा हो प्रगट हुआ । भावार्थ जैसे पानी अपने स्वरूप से भ्रष्ट होना परन्तु काल का निमित्त पाकर फिर जलरूप होता है--नीचा मार्ग पाकर ढलकता है और फिर से जलाकार हो जाता है- उसी प्रकार जीव द्रव्य अनादि काल से अपने स्वरूप में भ्रष्ट है परन्तु शुद्ध स्वरूप का लक्षण जो सम्यक्त्व गुण है, उसके प्रगट होने पर मुक्त होता है। ऐसा ही द्रव्य का परिणाम है ।। ४६ ।।
है
सर्वया - जैसे एक जल नानारूप दरवानुयोग, भयो बहु भांति पहिचान्यो न परत है । फिर काल पाई दरवानुयोग दूर होत, अपने सहज नीचे मारग हरत है ।
तैसे यह चेतन पदारथ विभावतासों, गति जोनि भेष भव भांवर भरत है । सम्पक स्वभाव पाइ अनुभौ के पंथ धाइ, बंध की जुगत भानि मुकती करते है ||४६ ||
इलोक
विकल्पकः परं कर्ता विकल्पः कर्मकेवलं । न जातु कर्तुं कर्मत्वं सत्रिकल्पस्य नश्यति ॥ ५० ॥