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कर्ता-कर्म-अधिकार प्रबहान कला जागी भरम की दृष्टि भागी। अपनि पराई सब मोज पहचानी है। जाके उद होत परमारण ऐसी भांति भई, निह हमारी ज्योति सोई हम जानी है ॥४६॥
रयोद्धता चित्स्वभावभरभावितभावाभावभावपरमापतये। बन्धपद्धतिमपास्य समस्तां
चेतये समयसारमपारं ॥४७॥ शुद्ध चतन्य का अनुभव करना ही कार्य की सिद्धि है वह अनादि. अनन्त शुदस्वरूपचैतन्य अपन उस ज्ञानगुण के द्वारा (जिसका कार्य ही अर्थ ग्रहण करना है) तथा उसक उत्पाद-व्यय-धोव्य रूपी तीन भेदों के विचार द्वारा सघता है। यह साधना, जितनी भी असंख्यात लोकमात्र भेदरूप ज्ञानवरणादि कर्मबंध रचना है..... उस सबका ममत्व छोडकर सघती है।
भावार्थ-शद्ध म्वरूप के अनुभव होने पर जो नय विकल्प हैं वे मिटते हैं-वे सब नय कर्म के उदय हैं। वे जितने भी भाव हैं फिर सभी मिट जाते हैं, ऐसा स्वभाव है ॥४७॥ सबंया-से महरनन को ज्योति में लहरि उठे,
जल को तरंग जैसे लीन होय जल में।
ते शुद्ध प्रातम दरब परजाय करि, उपजे विनसे घिर रहे निज पल में॥
ऐसोपविकल्पी अजलपि प्रानन्द कपि, प्रनादि अनंत गहि लीजे एक पल में। ताको अनुभव कोजे परम पीयूस पोजे, बन्धको विलास डारि बोजे पुद्गल में ॥७॥
शार्दूलविक्रीडित भाकामनविकल्पमावमवलं पक्षनयानां विना, सारो यः समयस्य भाति निमृतंरास्वाधमानः स्वयं ।