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पुष्प-पाप एकलार कि मैं देवता हूं, मेरे ऐसी विभूति है, कैसा मेरे पुण्य का उदय है, ऐसा मान कर बारम्बार रंजायमान हो रहा है ॥१३॥ संबंया-जैसे मतवारो कोउ हे प्रौर करे पोर,
तैसे मूह प्राणी विपरीतता परत है। प्रशुभ करम बंध कारण बताने माने, मुकति के हेतु शुभ रोति प्राचरत है ।
अन्तर मुष्टि भई मूढ़ता बिसर गई, मान को उद्योत भ्रम तिमिर हरत है। करणी सों भिन्न रहे प्रातम स्वरूप गहे, अनुभी प्रारंभि रस कौतुक करत है ॥१३॥ ॥ इति चतुर्थोध्याय ॥