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समयसार कलण टीका
निरुपाधि प्रातम समाधि सोई शिव रूप, पौर और धूप पुद्गल परछांही है॥५॥
शिखरिणी यदेतद् जानात्मा ध्रुवमचलमामाति भवनं । शिवम्यायं हेतुः स्वयपि यंतस्तच्छिव इति ।। प्रतोऽन्यद्वन्धस्य स्वयमपि यतो बन्ध इति तत् ।
ततो ज्ञानात्मत्वं भवनमनुभूतिहि विहितं ॥६॥ जिम चेतना लक्षण मन्त्र (गुण) स्वरूप वस्नु का निश्चय से स्थिर प्रत्यक्ष रूप से म्वरूपका आम्वादक कहा है वह स्वयं अपने में ही मोक्षरूप है।
भावार्थ - जीव का स्वरूप मदा कर्म में मुक्त है जिसके अनुभव मे मोक्ष होना है. मा घटित होना है. इसमें कुछ विरुद्ध तो नहीं है। शुद्ध म्वरूप का अनुभव माक्षमागं है, उमक मिवाय मब अनेक प्रकार की शुभ क्रियाए व अगभ क्रियाए बध का मार्ग है । वे स्वयं ही सब की सब बन्ध रूप है। पूर्वोक्न चतना लक्षण जीव निरचय में प्रत्यक्ष रूप में निज गुण के आचरण का स्वाद लेता हुआ (अनुभव करता हुआ) मोक्षमार्ग है ॥६॥ संबंया-मोल स्वरूप सदा चिन्मति, बंध मई करतात कही है।
जावत काल बसे जहं चेतन, तावत सो रस रोति गही है। प्रातमको अनुभी जबलों, तबलों शिवरूप बशा निवही है। पंप भयो करनी जब ठानत, बंध विषा तब फैलि रही है ॥६॥
श्लोक वृत्तं ज्ञानस्वमावेन ज्ञानस्य भवनं सदा ।
एकद्र व्यस्वभावत्वान्मोलहेतस्तदेव तत् ॥७॥ ज्ञानम्पी शुद्ध चेतन वस्तुमात्र के स्वरूप की पूर्णता (स्वरूपाचरणचारित्र) में ही मोक्षमागं है। इस बान में मंदेह नहीं।
भावार्थ---यदि कोई समझे कि स्वरूपाचरणचारित्र उसको कहा है जो आत्मा के शुद्ध स्वरूप का विचार करे अथवा चिन्तन करे अथवा एकाग्र मन से अनुभवन करे- सो ऐसा तो नहीं है। ऐसा करते हुए तो बंध होता है। इसलिए ऐसा तो स्वरूपाचरण चारित्र नहीं होता। तो प्रश्न उठता है कि फिर स्वरूपाचरण चारित्र कैमा है? मेसे पकाने से