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पुण्य-पाप एकत्वद्वार
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कोई जोव क्रियारूप यतिपना अपनाने और उस यतिष में हो मग्न होकर कहे कि हमने मोक्षमागं पा लिया, क्योंकि जो करना था वह तो कर लिया। ऐसे जीव को समझाते हैं कि यनिपने का भरोसा छोड़ पर शुद्ध चैतन्य स्वरूप का अनुभव करो ॥ ६ ॥
सर्वया - कोउ शिष्य कहे स्वामी प्रशुभ क्रिया अशुद्ध, शुभ क्रिया शुद्ध तुम ऐमी क्यों न बरनी । गुरु कहे जबलों क्रिया के परिणाम रहे, तबलों चपल उपयोग जोग धरनी ॥
घिरता न प्रावे तौलों शुद्ध प्रनुभौ न होप, पाते दो किया मोक्ष पंथ की कतरनी । बंध को करंया दोउ, बुहू में न भली कोउ, बाधक विचार में निषिद्ध कोनो करनी ॥६॥
शार्दूलविक्रीडित
संन्यस्तव्यमिदं समस्तमपि तत्कमँव मोक्षार्थिना संन्यस्ते सति तत्र का किल कथा पुष्यस्य पापस्य वा । सम्यक्त्वादिनिजस्वभावभवनान्मोक्षस्य हेतुर्भवनंष्कर्मप्रतिबद्धमुद्धतरसं ज्ञानं स्वयं धावति ॥ १० ॥
जो जीव सकन्न कर्म-क्षय के लक्षण से युक्त पद को (अनन्तसुख में) उपादेय अनुभव करता है, उसके लिए, पहले वर्णित जितने भी शुभ क्रियारूप, अथवा अशुभ क्रियारूप, अन्तर्जला रूप अथवा बहिजंल्प रूप क्रियाएं हैं अथवा ज्ञानावरणादि पुद्गल के पिंड अशुद्ध ' रागादि रूप जीव के परिणाम हैं, वे सब जीव-स्वरूप के घातक होने मे आमूल-चूल त्याज्य हैं। जब ममस्त ही कम का त्याग है तो फिर पुण्य का या पाप का क्या भेद रहा ?
भावार्थ - जब समस्त कर्म जाति हो हेय है तब पुण्य-पाप के विचार को क्या बात रही ? यह बात निश्चय में जान लो और पुण्य कर्म भला है, ऐसी भ्रांति में मत पड़ी। सकल कर्मक्षय लक्षण युक्त अवस्था का कारण जो शुद्ध चेतनारूप परिणमन, वह ही मोक्ष का कारण है, उसमें समस्त कर्म जाति का स्वयं ही महज हो त्याग हो जाता है। भावार्थ-जैसे सूर्य का प्रकाश होने पर अन्धकार सहज हो मिटना है, वैसे ही जीव के शुद 'चेतनरूप परिणमन से, समम्न विकल्प मिट जाने हैं, ज्ञानावरणादि कर्म-अकर्म रूप