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पुण्य-पाप एकत्ववार स्वर्ण के भीतर की कालिमा चली जाती है और स्वर्ण शुद्ध हो जाता है वैसे ही जीव द्रव्य में अनादि से जो अशद चेतनारूप रागादि परिणमन थे वे चले जाते हैं और शुद्ध स्वरूपमात्र शुद्ध चेतनारूप जीवद्रव्य परिणमता है। उसका नाम स्वरूपाचरण चारित्र कहा है-ऐमा मोक्षमार्ग है । इसका विशेष विवरण इस प्रकार है-जब तक शुद्ध परिणमन सर्वोत्कृष्ट दशा को प्राप्त नहीं हो जाता तब तक शवपने के अनेक भेद हैं। वे भेद जाति-भेद से नहीं है-बहत शुद्धता, उससे ज्यादा शुढना, फिर उसमे भी अधिक शुद्धता, ऐसा थोड़-बहुत की अपेक्षा में भेद है। भावार्थ --- जितनी शुद्धता हुई उतनी ही मोक्ष का कारण है। जब सर्वथा शद्धता होती है तब मकल कर्मों का क्षय जिसका लक्षण है उस मोक्ष पद की प्राप्ति होती है। त्रिकाल में शट चेतना रूप परिणमन करने वाला जो स्वरूपाचरण चारित्र है वह आत्मद्रव्य का निजस्वरूप है। शुभाशुभ क्रियाओं की भांति उपाधिरूप नही है। इसलिए वह एक जीवद्रव्यस्वरूप है। भावार्थ-यदि गुण व गुणी को अपेक्षा से भेद किया जाए तो ऐसा भेद होता है। परन्तु यदि जीव की शुदगुणमय वस्तु मात्र का अनुभव करें तो ऐसा भेद भी मिट जाय। इस प्रकार शढपने से जीव द्रव्य की तो एक ही सत्ता है। ऐसा शुद्धपना मोक्ष का कारण है । इसके बिना जो कुछ भी क्रियारूप है वह सब बंध का कारण है ।।७।। सोरठा-प्रन्तर दृष्टि लखाव, निज स्वरूपको प्राचरण । ए परमातम भाव, शिव कारण येई सदा ॥७॥
श्लोक वृत्तं कर्मस्वभावेन ज्ञानस्य भवनं न हि।
द्रव्यान्तरस्वभावत्वान्मोलहेतुर्न कर्म तत् ॥८॥ जितना भी शुभ क्रिया रूप अथवा अशुभ क्रियारूप आचरण के लक्षण से युक्त चारित्र है वह चारित्र शुद्ध चतन्य वस्तु का शुद्ध स्वरूप परिणमन नहीं है, यह तो निश्चय है।।
भावार्थ-जितनी भी गुभ या अशुभ क्रियाएं हैं उनका आवरण चाहे बाहरी वक्तव्य हो या सूक्ष्म अंतरंग में चितवन हो, अभिलापा या स्मरण इत्यादि हो, यह सारा ही आचरण अशुद्धत्वरूप परिणमन है, शुद्ध परिणमन नहीं है, इसलिए वह बंध का कारण है, मोक्ष का कारण नहीं है। जैसे कामला का सिंह कहने मात्र को सिंह है उसी तरह आचरणरूप चरित्र कहने मात्रको