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पुण्य-पाप एक बार सम्यकदृष्टि और मिथ्यादष्टि में गमा भेद ना कोई नहीं है। कसी भी करतति करो, ऐसा ही बन्ध है । शद्ध स्वरूप परिणमन मात्र मे ही मोक्ष है। यपि एक ही काल में मम्यकदष्टि जीव के शुद्ध ज्ञान भी है और क्रियारूप परिणाम भी हैं परंतु विक्रिया ( विभाव) कप जो परिणाम है उनसे तो एकमात्र बन्ध हो होता है, कर्म का क्षय एक अग भी नही होता--ऐसा हो वस्तु का स्वरूप है। दूसरी तरफ जिमको जिम काल में शुद्ध स्वरूप का अनुभव शान हो रहा है उस काल में ज्ञान में कर्म का भय ही होता है एक अंश मात्र भी बन्ध नहीं होता। वस्तु का मा हो स्वरूप है । कभी कर्मरूप परिणाम और आत्मदव्य के द्धन्वका परिणमन का एक हो जीव में एक ही काल में अस्तित्व हो ऐसा भी है...इममें कोई हानि (दोष) नहीं है।
भावार्थ-कोई कहे कि एक ही जीव में. एक हो काल में, शान और त्रिया दोनो कैसे होते है तो उसका समाधान है कि यह कोई विरोधी बात नहीं है। कभी एक ही समय में दोनों होते है ऐमा ही वस्तु का परिणाम है। यद्यपि यह विरोधी-सा दोखना है, परन्तु दोनों का अपना-अपना सका है, विरुद्ध नहीं है। पूर्वोक्त कथन के अनुमार जितने काल तक आत्मा का मिथ्यात्वरूप विभाव परिणाम मिटता है उसका आत्मद्रव्य (उस काल में) शद्ध होता है, परन्तु अभी कर्म का मूल मे त्याग या विनाश नहीं हआ है। भावार्थ- जब तक शभ-अशुभ परिणमन है तब तक जीव का विभाव परिणमन रूप है। उम विभाव परिणमन का अंतरंग निमित्त है ओर बहिरंग निमित्त भी है। जीव की जो विभावरूप परिणमन करने की शक्ति है वह तो अंतरंग निमिन है और पुदगलपिण्ड के उदय में उपजा मोहनीय कम्मं रूप परिणमन उसका बहिरंग निमित है। मोहनीय कर्म भी दो प्रकार का हैएक मिथ्यान्वरूप है, दूसरा चारित्रमोह रूप । जीव का विभाव परिणाम भी दो प्रकार का है। जीव का एक सम्यक्त्व गुण है, वही विभावस्प होकर मिथ्यात्वरूप परिणमन करता है। तो उसका अंतरंग निमित मिथ्यात्वरूप परिणाम है । जीव में एक चारित्र गुण है जो पदगल पिण्ड (कर्म) के उदय से विभावरूप परिणमन करता हुआ विषय-कपाय लक्षण में युक्त चारित्र मोहरूप परिणमना है। उसका बहिरंग निमित्त है---चारित्र मोहरूप परिणमन किया हुआ पुद्गलपिंड का उदय । उपशम का क्रम सा है कि पहले मिथ्यात्व कम्मं का उपशम होता है अथवा क्षय होता है। उसके बाद चारित्रमोहकम का उपशम होता है अथवा क्षय होता है। किसी आसन्न भव्य जीव के काल. लब्धि पाकर मिथ्यात्वरूप पुद्गल-पिडकर्म का उपगम होता है अथवा अय