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समयसार कलश टीका
भावार्थ - अनुभव निर्विकल्प होता है। अनुभव करने के समय सारे विकल्प छूट जाते हैं। वाह्य व आभ्यन्तर बुद्धि के जितने भी विकल्प हैं उतने ही नय भेद हैं। वे असंख्य भंद बिन उपजाए ही उपजते हैं और निर्भेद वस्तु में भेद कल्पना के समूह है। आत्मस्वरूप तो अतीन्द्रिय सुख रूप है ।। ४५ ।। सबंध – प्रथम नियत नय दूजो व्यवहार नय, को फलावत प्रनंत भेद फले हैं । ज्यों-ज्यों नय फैले त्यों-त्यों मन के कल्लोल फैले, चंचल सुभाव लोकालोकलों उछले हैं ॥
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ऐसो नय कक्ष ताको पक्ष तजि ज्ञानी जीव, समरसि भये एकताम नहि टले है । महा मोह नामे शुद्ध प्रनुभो प्रम्यासे तिज, बल परगासि सुखरासी मोहि रले है ।। ४५ ।।
रथोद्धता
इन्द्रजालमिदमेवमुच्छलत् पुष्कलोच्च लवि कल्पवीचिभिः यस्य विस्फुररणमेव तत्क्षरगं
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कृत्स्नमस्यति तदस्मि चिन्महः ॥ ४६ ॥
मैं ऐसा ज्ञान पुंज रूप हूं जिससे प्रकाशमात्र होता है। जिस समय मुझे शुद्ध चिद्रूप का अनुभव होगा उस समय निश्चय से जो अनेक नय विकल्प यद्यपि बहुत है परन्तु झूठे हैं--विनश जाएंगे ।
भावार्थ - जैसे सूर्य का प्रकाश होने पर अंधकार फट जाता है उसी प्रकार निज चैतन्य मात्र का अनुभव होने पर जितने भी समस्त विकल्प हैं, मिट जाते हैं। ऐसी जो शुद्ध चैतन्य वस्तु है, वह तो मेरा स्वभाव है, बाकी सभी कर्म की उपाधि है। यह सब जो अत्यन्त स्थूल विकल्प व भेद कल्पना की तरंगें उठतो हैं, वे सब आकुलता रूप हैं इसलिए हेय हैं, उपादेय नही हैं ॥४६॥
सर्वया - जैसे बाजीगर चोहटे बजाइ डोल, धरिके भगल बिद्या ठानी है ।
नानाप
तैसे मैं अनादि को मिध्यात्व को तरंगनि सौं, भरम में थाइ बहु काय निज मानी है ॥