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अजोव-अधिकार उमो तरह यद्यपि जीव और कर्म का संयोग अनादिकाल से चला आया है परन्तु जीव और कर्म भिन्न-भिन्न हैं। फिर भी शुद्धस्वरूप के अनुभव के बिना प्रगटम्प में भिन्न-भिन्न नहीं होतं । जिस समय शुद्धस्वरूप का अनुभव होगा उसी समय भिन्न-भिन्न होंगे। संबंया से करवन एक काठ बोच खंडकर,
जैसे राजहंस निरवार दूध जल कों। तंसे भेद ज्ञान निज मेदक सकति सेती, भित्र-भिन्न करे चिदानन्द प्रबगल कों॥
प्रधिकों पावे मनपर्य को अवस्था पावं, उमगि के माथे परमावधि के पल कों। याही भांति पूरण मरूप को उदोत पर, करं प्रतिबिंबित पदारथ सकल कों॥१३॥
॥ इति दिनीयो अध्याय ॥