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कर्ता-कर्म-अधिकार मरीचिका को पानी समझकर पीने के लिए भागता है अथवा मनुष्य अंधकार में भ्रांति के कारण रस्सी में मां को बुद्धि करके डरता है ॥१३॥ संबंया...जैसे महा धूप की तपनि में तिसायो मग,
भरम से मियाजल पोवने को पायो है। जैसे अंधकार माहि जेवरी निरखि नर, भरम से उरपि सरप मानि प्रायो है॥
अपने स्वभाव जैसे सागर है पिर सदा, पान संयोग सों उछरि अकुलायो है। तसे जी: जरमों अध्यापक महज रूप, भग्म मों करम को कर्ता कहायो है ॥१३॥
वसंततिलका ज्ञानाद्विवेचकतया तु परात्मनोर्यो, जानाति हम इव वाः पयसोविशेष । चैतन्यधातुमचलं स सदाधिरूढ़ो,
जानीत एव हि करोति न किञ्चनापि ॥१४॥
कोई मम्यकदष्टि जीव सम्यक्ज्ञान के बल पर जीव के चैतन्यमात्र लक्षण में भंद करके द्रव्यकर्मपिट में आत्मा को भिन्न जानता व अनुभव करना है। इसी को भेद ज्ञान कहा है। जैसे हम पानी और दुध को भिन्न करता है।
भावार्थ--जैसे हम दुध पानी भिन्न-भिन्न करता है। वैगे ही कोई जीव आत्मा का पुद्गल गे भिन्न अनुभव करता है । ऐमा जीव जायक तो है परन्न परमाण मात्र भा करना ना नहीं है। "मा ज्ञानी जीव मदा निश्चल चैतन्य धातुमय आत्मा के स्वरूप में दृढ़ता करता है ।।१४।। सर्वया... जैसे राजहंम के बदन के मपरमत,
देखिए प्रगट न्यारो क्षोर न्यागे नीर है। तैसे समकिनी के मुदृष्टि महजरूप, न्यारो जीव न्यारो कर्म न्यागेही शरीर है।
जब शुद्ध चेतन के अनुभी अभ्यासे तब, भामे प्राप प्रचल न दूजो और सीर है । पूरब करम उप्राइके दिखाई देह, करता न होई तिन्ह को तमासगीर है ॥१४॥