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कर्ता-कर्म-अधिकार भरम सो करम को करता है चिदानंद, परब पिार करतार नाम नखिए ॥१५॥
अनुष्टुप प्रज्ञानं ज्ञानमप्येवं कुर्वन्नात्मानमञ्जमा ।
स्यात्कर्तात्मात्ममावस्य परमावस्य न क्वचित् ॥१६॥ जीव द्रव्य सभी प्रकार अपने ही परिणामों का कर्ता है। कर्मरूप अचेतन पदगल द्रव्य के परिणामों का तो जोत्र कभी तीन काल में भी कर्ता नहीं होता । शुद्ध चेतन के विचार मे ना जीव अपनी सिद्ध अवस्था के अनुरूप ही परिणमन करता है । अशुद्ध अवस्था में अशुद्ध चेतनारूप विभाव परिणामों में भी परिणामत होता है।
भावार्थ-जीवद्रव्य अशुद्ध चतनारूप परिणमता है और शुद्ध नंतनारूप भो परिणमना है। जिम समय जैसी चेतनामा परिणमता है. उम समय वैसी ही चंतना में व्याप्य-व्यापकरूप होता है और इसमें उस समय वैमी ही चेतना का कर्ता है ना फिर, ज्ञानावरणादि जा पुदगलपिडरूप है उनमें ना व्याप्यव्यापकरूप नहीं होता। उनका ना कर्ता नहीं है। सब जगह ऐमा ही अर्थ है ॥१६॥ दोहा--ज्ञान भाव ज्ञानी रे, मनानी प्रशाम ।
द्रव्य-कर्म पुद्गल करे, यह निश्चं परमान ॥१६॥
प्रात्मा ज्ञानं स्वयं जानं ज्ञानादन्यत्करोति कि । परमावस्य कर्तात्मा मोहोऽयं व्यवहारिणाम् ॥१७॥
चंतन द्रव्य चंतना मात्र परिणाम करता है। इस तरह आत्मा अपने ही चंतनापरिणाम मात्र स्वरूप है। चंतना परिणाम में भिन्न अचंतन पुद्गलपरिणाम कम उनको आत्मा क्यों करें। अर्थात नहीं करता--सर्वथा नहीं करता । जो जानता है कि चननद्रव्य जानवग्णादि कर्म को करता है वह मिथ्यादृष्टि जीव का अज्ञान है ।
भावार्थ-मानवरणादि कर्म का करता जीव है ऐमा कहना झूठा है।॥१७॥