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समयसार कलश टोका
मंद्राकांता मानादेव ज्वलनपयसोरोग्यसत्यव्यवस्था, जानादेवोल्लमति लवणस्वादमेदव्युदासः । जानादेव स्वरमविकसन्नित्यचंतन्यधातोः,
क्रोधादेश्च प्रमति मिदा मिन्दती कर्तृभावम् ॥१५॥
गद म्वरूप मात्र वस्न का अनुभव होते ही समम्न अशद्ध चेतनारूप रागादि परिणाम में भिन्न, अविनम्वर गद्ध जीव स्वरूप प्रकागमान होता है, जिममें यह भ्राति ममल दर होनी है कि कम का कर्ता जीव है।
भावार्थ सभा ममार्ग जात्र रागादि अशुद्ध चेतनाम्प परिणमन कर रहे है, परन्तु यह पयाय है। वह ज्ञान जिमने क्रोधरूप परिणमन किया है भिन्न है और काध भिन्न : एमा अनुभव ना वहत ही कठिन है ? इमका उनर है कि मनमन हो कठिन ना है परन्तु वम्न के गद म्बम्प का विचार करन म भिन्न म्बाद ना आता ही है । दष्टान.--जम निज स्वरूपग्राही जान में म्पाट प्रगट हाता है कि उष्णता आग की है आर मानलता पाना का है. परन्तु आग के मयोग में पानी का है. गर्म कहा जाता है । भावार्थ.. पहले आग में पानी को गर्म किया जाना है और फिर उन गम पाना कहते है परन्तु दोनों वस्तुओ के स्वभाव का विचार कर ना उष्णपना आग का है, पानी तो स्वभाव में गीतन है।
नमक में ग्वारा किया हुआ व्यजन था परन्तु उसको जो खारा व्यजन कहता व जानता था, वह यह जानने पर छुट गया कि नमक का स्वभाव खारा है। वैसे हा निज म्वरूप के जानपन मे (ज्ञान मे। यह भंद प्रगट हुआ।
भावार्थ -जैसे नमक डाल कर व्यंजन बनाया ना उमको कहते है कि व्यंजन नमकीन मारा) है और एमा ही जानते भी है। परन्नु स्वम्प के विचार में नो खाग नमक ही होता है. व्यंजन तो जमा था वैसा ही है ।।१५। सर्वया जैसे उषपोटक में उदक स्वभाव मोन,
प्राग की उपलता फरम मान लखिए। जैसे स्वाद व्यंजन में दोमन विविधरूप, लोंग को सुबाद सारोजीभ मान बखिए।
तसे पपिर में विभावता प्रज्ञान रूप, मानल्प जीव मेवमान सों परखिए।