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तृतीय प्रध्याय
कर्ता-कर्म अधिकार पृथ्वी
एक: कर्ता चिदहमिह मे कर्म कोपादयोऽमी, इत्यज्ञानां शमयदमितः कतृकर्मप्रवृत्ति । ज्ञानज्योतिः स्फुरति परमोदात्तमत्यन्तधीरं, माक्षात्कुर्वन्निरुपधिपृथग्द्रव्यनिर्मासि विश्वं ॥ १ ॥
मिध्यादृष्टि जीव को ऐसी प्रनीति होती है कि जीव-वस्तु पुद्गल कर्म काकर्ता है या मैं अकेला जीवद्रव्य चेतन स्वरूप पुद्गल कर्म करता हूं और जो ज्ञानावरणाfar fuड विद्यमान है वे मेरी ही करतुत है। ऐसा जो मिथ्यादृष्टि का विपरीतपना है उसको सम्पूर्णन दूर करके शुद्ध ज्ञान प्रकाशमान होता है। वह सर्वोत्कृष्ट है. त्रिकाल शाध्वन है. सकल शेय वस्तु को साक्षात्, एक समय में प्रत्यक्ष रूप से जानता है, उपाधि से रहित है तथा भिन्न-भिन्न रूप में सकल द्रव्य-गुण-पर्याय को जानने वाला है। इसी को लेकर अब कर्ताकर्म अधिकार आरम्भ करते हैं ॥ १ ॥
दोहा- यह प्रजोव प्रधिकार को, प्रगट बलान्यो ममं । अब सुतु जीव-प्रजीव के, कर्ता किरिया कर्म ॥
सर्वया
1- प्रथम प्रज्ञानी जोव कहे मैं सदीव एक, दूसरो न और मैं ही करता करम को । अन्तर विवेक प्रायो प्रापा-पर-भेद पायो, भयो बोध गयो मिटि भारत भरम को ।
भासे छहों दर के गुरण पराजय सब, नासे दुःख लख्यो सुख पूरण परम को ।